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प्रेमघन सर्वस्व


(दूसरा परि॰) महाश्वेता और सरला के प्रवेश के संग काल और समय एवं दशासंवन्ध और स्वभाव का सुन्दर चित्र उतरा है। चौथा परिच्छेद बहुत ही मनोहर हे, विशेषता सरला और अमला से साँचे की ढली नवेली ललनाओं की स्वाभाविक रसीली और भोली भाली बातें एवं इन्द्रनाथ का प्रवेश और सच्चे सरल स्नेही और प्रेमी की स्वाभाविक मर्यादा संपन्न शुद्ध प्रीतिप्रदर्शन, और परस्पर सुमधर प्रेमालाप और साथ ही वियोग सूचना अत्यन्त उत्तम रीति से वर्णित है। परन्तु ४० पृष्ठ के अन्त में जो सरला देशत्याग करने की इच्छा रखने वाले इन्द्रनाथ से कहती है—"क्यों क्या" सखी तुमको घर में रहने नहीं देती" नहीं समझ में आता कि वह सखी कौन है।

[छठवां परिच्छेद] विमला और सतीश्चन्द्र की प्रभावपूर्ण बातें, पिता और पुत्री का स्नेह अच्छा दिखलाया है।

[सातवां परिच्छेद] पाप का प्रभाव और पापी के चित्त की चिन्ता का चित्र एवं दुष्टों की कुटिल शिक्षा और विपरीत पचनरचना सामर्थ्य भी उत्तमता से लिखी गई।

[आठवां परिच्छेद] कुटिल और दुष्टों की मनोवृति अच्छी दिखाई गई।

[नवां-दसवां परिच्छेद] में समय और स्वाभाविक सौन्दर्य के वर्णन संग चिन्तित चित्त वाले जनों की चिन्ता का चित्र और शोकार्त हृदय वाले का अन्ततोगत्वा ईश्वर में अनन्य प्रौढ़ प्रेम प्रदर्शन उत्तम हैं। परन्तु हम यहां विमला और इन्द्रनाथ का मिलना नहीं पसन्द करते, और सरला से इन्द्रनाथ का सतीशचन्द्र के रक्षा की प्रतीक्षा तो अत्यन्त अनुचित और अवर्णनीय है। यद्यपि उसको प्रत्यकार अपने तीसरे परिच्छेद में सुधारता है, परन्तु हम उससे असन्तुष्ट हैं।

[ग्यारहवां परिच्छेद] गुस वेष में दोनों भाइयों का संयोग और विचित्र वार्तालाप उत्तम है, परन्तु इसमें दो बातें आलोचना योग्य है। प्रथम ये नाविक और इन्द्रनाथ के मुगेर में मिलने से यदि महेश्वर के मन्दिर से चलते शोकाकुल हृदय इन्द्रनाय से मुगेर की राह में नाविक मिलता तो कदाचित्औ और भी सुन्दरता आती; यों ही बारहवे परिच्छेद में नाविक को पूर्वकथा के पश्चात इन्द्रनाथ का यदि सम्बन्ध नाविक पर प्रकाश हो तो और अच्छा