पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४७
नागरी के समाचार पत्र और उनकी आलोचना

यह कटिनता उसके दोष के कारण हैं, परन्तु पूर्वोक्त गुणयुक्त और इन दोषों से रहित जो समालोचना लिखी जाय' यथार्थ समालोचना कहाने की योग्यता वही रखती हैं। सच्ची समालोचना एक स्वच्छ दर्पण तुल्य है कि जो शृंगार की सजावट को दिखाती, और उसके दोषों लथा साहित्य की दुष्टाकृति को बतलाती। यह एक ऐसी कसौटी है कि जिसपर वर्ण सुवर्गा का खरा और खोटापन झलकता है; यह वह दीपक है कि जिसकी सहायता से अन्धेरी कोठरी में धरे अच्छे और निकृष्ट दोनों पदार्थ देख पड़ते अथवा वह उपनेत्र (चश्मा) है कि जिसके द्वारा अति सूक्ष्म पदार्थ हीन दृष्टि वाले जन को भी सहज में सुझाई पड़े अथवाः—

'अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल श्रमरुज परिवारू॥
उधरहिं विमल विलोचन हीके। मिटहिं दोष दुःख भ्रम रजनी के॥

परन्तु शोक से कहना पड़ता है, कि न तो प्रायः इस प्रकार की समालोचना लिखने योग्य विशेष पुस्तके प्रकाशित होती और जो होती उनकी ऐसी समालोचना भी नहीं लिखी जाती एवम् यदि कदाचित् लिखी जाती, तो उसका फल अवश्य ही विपरीत होता है और वह भी कई प्रकार से।

जहां तक लोग जानते हैं यद्यपि हिन्दी पत्रों में न्यूनाधिक समालोचना लिखने की चाल तो आगे से प्रचरित है तो भी ऐसी समालोचना लिखने की परिपाटी हमारे नगर की सुप्रसिद्ध मासिकपत्रिका आनन्द कादम्बिनी ही ने निकाली। सच पूछिये तो मासिक पत्र ही का कार्य है कि ऐसी समालोचना लिखें परन्तु इन समालोचानाओं के लिखने से उसे बहत कुछ हानि उठानी पड़ी, यथा बंगाल के एक महाराज की बनाई एक नष्ट पुस्तक की निष्प्रयोजनता और रचना दोष के दिखलाने से पत्र बन्द करने के पश्चात भी गुप्त पत्रों द्वारा उधर से गालियों के बौछार आते रहे। इसी भांति स्वर्गीय लाला श्री निवास दास कृत 'संयोगितास्वयम्बर नाटक' जिसकी अशेष सामयिक समाचार पत्रों के एकमुख हो प्रशंसा करने पर भी कादम्बिनी ने जो उसके दोष दिखलाए तब भी वहीं दशा रही। वर्षों के पीछे पत्रिका के दोष दिखाने का भी बहुत कुछ प्रबंध किया गया, परंतु शोक कि उसके बतलाये दोष का उत्तर न दिया गया। यही दशा ऊपर की कही पुस्तक के रचयिता की ओर से हुई; इसी भांति अभी बहुत दिन की बात नहीं है कि जब उसी आनन्द कादम्बिनी के सम्पादक द्वारा प्रणीत भारत'