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प्रेम घन सर्वस्व

और बेरहमी निर्दयता और निष्ठुरता, रुखाई और ढिठाई, बड़े बर वालियों की मर्यादा, और सच्ची सुन्दरताई का स्वाद, कुलङ्गनाओं का धर्म और पक्के प्रीतिपात्रों के कर्म का सुबूत सबों को दरसा कर मानों प्रेम के पन्थ चलने वालों को यह सन्मार्ग अर्थात् राह है इसकी शिक्षा सी देतीं। समय को अनुकुल जानकर अनुकूल प्रिय के प्रिय कार्य में जी लगाये, चन्दन में घिसी केसर जीवन से भरे उभरे जावनों पर लगाती गोल लोल कपोलों को मृग मद से चित्रित कर, कलानिधि से अमल ललाट पर अफशां, और सितारें सजाती हुई मुक्तामय अलङ्कारों से अलङ्कत हो सूही वा सब्ज़ सारी से सुशामित होती परकीयायें अपने उपपति यार के तार में नेनों की कटार की धार पर सुरमें की वार संवारती, भौंहों की तलवार सुधार कर सिवार से बार के फन्दे बना फन्दे में लाने के हेतु तैय्यार होती, कुसुम्भी आंगी में मस्ती से उठे आते नहीं समाते भी, पीन पयोधरों को कस कस कर भी कस कर बन्द बाँधती, कि वे काहे को मानते उन्मत्त बीरों की भाँति आगे ही बढ़त हुए कंचुकी दरकाए देते, इसीरीत पांघरी घरी घरी कस कर बार वेषजनमल्ल मन भावन में मन दिये, समर के समर का साज साजे, तन कर छाती ऊँची किये, अभिमान भरे चार आँखों से चारों ओर चौकन्नी चितै रही हैं? बाराङ्गना अर्थात् सामान्या अपने सघन वनोपम अलकों के बीच बिजली से विजली को चमका अपने वैसइक यारों के दिलों पर बिजली सी गिराती; जमुदी ज़री के काम के कलीदार पाजामें पर धानी (पेशवाज़) पहने मोर मछली वाले पत्ते से चान्द को ढाँपे और गुले अब्बासी रेशमी रूमाल लिए सुशामित आपही सावन भादों बनी जवाहिरों से जरित जुगनू को जुगजुगाती मिशकी काकुल काला नागिनों से अपने आशिकों को डसवाती सतराती, मलार काअलाप, और सावन की लय, कजली के तान से मियाँ तानसेन के भी कान काटती, नृत्य में चंचलता से चंचला को ल जाती, सुन्दर रस टपकते भाव से कलेजे पर घाव कर तन मन धन के दाव को मार, वेदिल दिल देने वालों को दीन और दुनियाँ दोनों से ले डालतीं। अतएव "मरिजैयो भला विष चूंटि अलीन, वियोग में बैंस वितैवो भलो" पर यहाँ क्रौन इस झंझट को झेले, ज़हर में भी लहर की लहर सुनती हूँ और हमें लहर से क्या मतलब यहाँ आनन्द के अक्षर मन्द भाग्य में लिखे नहीं गये, निदान यह कहकर कर में कटार ले कहा कि, रे निरदई दई! ले अब सन्तुष्ट हो, और रे कुटिल