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नागरी के समाचार पत्र और उनकी समालोचना

हमारे सहकारी सम्पादक ने भी अनिच्छा प्रकाश की, और उसने कहा कि इस पत्र वा शास्त्रार्थ से लेखक महाशय का केवल अपने ग्रंथों की ख्याति अथवा विज्ञापन देने का अभिप्राय है, और केवल स्वार्थ के अतिरिक्त इससे सर्व सामान्य का कुछ उपकार नहीं, तो भी हमने लेखक महाशय के आग्रह पर उसे प्रकाशित कर दिया, क्योंकि समाचार पत्र कोई ग्रंथ नहीं, न अपनी कोठी का बहीखाता कि उसमें हम अपने इच्छा के विरुद्ध कुछ न छपने दें, चाहे वह सर्वसामान्य जनवा विशेष के उचित लाभ से कैसा ही कुछ सम्बन्ध क्यों न रखता हो वरव उदार पत्र सम्पादकों का मत इसके विरुद्ध है, और समाचार पत्र एक प्रकार सर्व सामान्य की सम्पति है, उक्त बाबू देवकी नन्दन के उसी पत्र के उत्तर में सहयोगी भारत मित्र सम्पादक ने लिखा भी था कि "हमने इस पत्र को अप्रयोजनीय मान कर नहीं प्रकाशित किया था, परन्तु नागरी नीरद ने जब इसे प्रकाशित किया है, तो इसके विषय में हम अपने विचार को प्रकाशित करते हैं।" यद्यपि उस पर और किसी ने कुछ उत्तर न दिया और हम भी उसके विषय में अपना मत न प्रकाशित कर सके परन्तु अपने परिश्रम के बचाव के लिये एक प्रसिद्ध लेखक के लेख को चाहे वह स्वार्थ बुद्धि से ही क्यों न लिखा गया हो, जब किसी अनुचित विषय वा रीति पर नहीं लिखा गया है, तो प्रकाशित करने से भी मुख मोड़ना उचित न समझा। इस कथा के कहने से तात्पर्य केवल इतना ही है कि समालोचनाओं के लिखने में ऐसे २ अनेक बखेड़े पड़ते हैं, कि जिनके अनेक उदाहरण और भी हैं, जो लेख बढ़ जाने के कारण नहीं लिखे जा सकते। फिर इसके अतिरिक्त कि उसमें बहुत श्रम करना पड़ता, पीछे भी बहुत बखैड़े झेलना पड़ता है। फिर हमारी भाषा में जो पुस्तके आज कल प्रकाशित होती, उनमें से अधिकांश पढ़ने के पीछे केवल पश्चाताप ही होता, और ग्रन्थ करतो के परिश्रम को छोड़ अपने समय के नष्ट होने का परिताप होता है और जो इससे अच्छी हैं, उनके विषय में गुण की प्रशंसा करने में ठीक है, परन्तु दोष तो दिखाते ही ग्रन्थकार लोग अति अप्रसन्न होते, और वे उचित रीति से उत्तर देने के स्थान पर अनुचित साहस के करने पर भी तत्पर होते। वे नहीं चाहते कि "उनके गुण दोष की जांच की जाय, वरंच विशुद्ध प्रशंसा कि जो एक न्यायी समालोचक के लिये एक प्रकार की बड़ी भारी कठिनता

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