पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४९

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ऋतु वर्णन

दुखसे तू अनभिज्ञ नहीं पर तो भी तुझे मुझ पर तरस न आई, परन्तु अब तू अपना काम तमाम कर! क्योंकि मैं अपना काम तमाम किए देती हूँ, अरे पापी पावस! अब तू भी प्रसन्न होकर अपनी विजय की दुन्दुभी विनोद से बजा, और ये कठोर चितचोर! जो तेरे कटाक्षों के कोर की करद, और जुग भौहों की मरोर की तलवार की धार से जीव बिहंग वच रहा था, वर्षा वधिक उसे आज तेरे बिरह के विसिख से मारा, अब तू बिदेस का मनमाना मज़ा लूट, मन मेरा जो तेरे पास मरने पर जायगा, यदि तुझे याद दिलासके स्मरण रखना, और तो जान चुकी प्रीत की रीत, तथा प्रेम के नेम, अब यह वियोग का सोग नहीं सहा जाता, अतएव ले मैं तो अब तेरे हवाले हुई, निदान यह कह उस वेकल कलकामिनी ने कटार कलेजे को सौंप श्राप अपनी आँखे मूंद लेट गई; बस फिर क्या था इस अकथनीय अनर्थ को देख कर अाकाश की भी छाती अरें से फट गई अथात् दामिन के मिस दरक गई, गरज के व्याज अत्यन्त आर्तनाद से लगा चिंघाड़ कर डा मार मार रोने, कि आंसुओं के बूंद की झड़ी लगा दिया।

जब इस रीत चञ्चला चमकने लगी तो घुमड़े धन घनघोर सौर कर मुशलधार जल बरसने लगे अरे! यह तो ऐसे जोरसे तड़पा कि मानों कहीं विजली गिरी, देखो! क्या चपला की चमक से चखों में चौंधी लगते ही चपला सी चमक चिहुंक कर चटपट मानिनी. भामिनियाँ सेजो से उचट प्रिय से लिपट लिपट कर में चूमने लगीं; अब इस चमक के आगे सर्प से ले खद्योत पर्यन्त जीवों की दुति अदृश्य हुई और धूर्वानों की धुन को सुन चिड़ियात्रों इत्यादि की चुन्न मुन्न भी नक्कार खाने में तूती की अावाज हो गई।

निदान अब अरुणशिखा बैतालिकों ने समय की सूचना करना प्रारम्भ किया कि हे धर्मावतार! अब महाराज उठ! विचारी चकई चकवे के वियोग से अत्यन्त व्याकुल विलाप करती हुई निज पति के मिलाप की आज्ञा माँगती है, सुगन्धित शीतल वायु स्वच्छ जल परमाणुओं के लिए उपस्थित है; यह सुन कर ज्योंही उठे और जब शयनागार से निकले और दिन के वा दतुअन के दर्बार में रौनक अफ़रोज़ हुए (पधारे) कि चंचलखञ्जरीट दूत आकर अर्ज करने लगा, कि हे महाराज सच्चे ऋतुराज राज! सरदार सरद ने निवेदन किया है कि मैंने हुजूर के प्रस्थान के समाचार को सुन यद्यपि अत्यन्त क्लशित हुआ, पर तो भी उन समस्त प्राज्ञानों को सुन कर सावधानी