पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४९२

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पत्रिका की प्रार्थना
दोहा

जयति सच्चिदानन्द धन, करुणा सागर देव।
जय जय परम कृपायतन, सुर नर मुनि जेहि सेव॥२॥
जयति जयति श्रानन्द घन, कादम्बिनी समान।
सर्व दिशा सब काल जो, पूरित जग सुख दान॥२॥
भरित दया जल सों सदा, बरिस रझौ चहुँ ओर।
हरित करत जग जोहि जेहि, नाचत मुनि मन मोर॥३॥
सोई आनन्दघन कृपा सों भरि श्रानद वारि।
भारत नभ श्रानन्द की कादम्बिनी प्रसारि॥४॥
बरखि बिंदु आनन्द के आनन्दित करि देश।
विद्या सर भरि मूढ़ता आतप करि निश्शेष॥५॥
निज प्रेमी चातकन करि तृप्त अनंदि अथोर।
वर विवुधन, सुकवीन मन, मोहै मनु मन मोर ॥६॥

आनन्द पूर्वक प्रथम उस मंगलमय आनन्दस्वरुप दया सागर जगदीश्वर कोअनेकानेक धन्यवाद देना अवश्य है कि जिसकी कृपाकणवारिबिंदु का आश्रय पाकर आनन्दोल्लासलसित कलितकादम्बिनी सी आज यह आनन्द-कादम्बिनी उमड़ घुमड़ कर फिर भी घिर आई यद्यपि जब से इसके सम्पादक सहायक समीर सांसारिक शोक सैल की सैल में जा दत्तचित हुआ, इसने भी कुत्सित समय सरद जान विश्राम के आँचल में मूं छिपाया और यद्यपि इसकी प्रेमी मयूरमन्डली तभी से कूक कूक कर अपना असीम प्रेम प्रगट करती रही, पर बहुतेरे रसिक चातकों ने तो वह चहँकार की रट लगाया कि चुप हुये नहीं, और ऐसी दशा में यही उचित जान निश्चय हुआ कि जो हो, इनके तृप्त कर देने में चाहे कुछ कसर अभी क्यों न रहजाय, पर थे तृषाकुल तो न रहैं, और श्रीमती नागरी देवी कि जिसका एक मात्र पाश्रय भारतेन्दु श्री हरिश्चन्द्र था, उसके अचानचक, मोड़ छोड़ भागने से प्राप्त दुःख दुखिनी को कुछ भी तो आश्वासन दिया जाय। यो तो इस जगत के जंजाल के उलझन से सर्वथा सुलझे रहना अत्यन्त असम्भव है, क्योंकि न यहाँ