आ केवल नल हरिश्चन्द्र, और युधिष्टिर प्रभति को ही रोना पड़ा, किन्तु रामकृष्णादि को भी सचमुच सुख से हाथ धोना पड़ा, तो मला अत्मदादिक की कौन गयना है कि जो केवल माया मानस के दीन मीन, हर तरह सत्य स्वच्छन्दता बिहीन नित्य नये मृगतृष्णा में लीन रह कदापि किसी तरह आनन्दित नहीं रह सकते। निदान बह जानकर मान लेना पड़ा कि जैसे शानक झगड़े और कमेले हैं अकेले इसी से क्यों छुटकारा लेने के लिये यक्ष किया जाय जैसे सव कर्तब्य है, यह भी एक परमावश्यक है, यद्यपि इसके प्रकाशकों को कदापि इसके द्वारा द्रव्य लाभ की इच्छा न थी, और न अब है, किन्तु कुछ हानि उठा कर भी अपने भाषा के प्रेमियों को मोहित करना मंजूर था, परन्तु जब केवल कोरे ग्रेस के बाजार में भी ठाले पड़ें, तो उत्साह के लाले पड़ने कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि "वसुयच्छति वा नवा नरेन्द्रो यदि कर्णे कवि भारती शृणोति। रति मिच्छति वा न वा नबोढ़ा यदि केलीगृह देहली मुपैति। हमैं अपने अनुग्राहक ग्राहकों को यद्यपि वे कितने हूँ कम क्यों न हों चित्त से धन्यवाद देना चाहिये कि जिन्होंने कादम्बिनी का अग्रिम मूल्य भेज हमारा उत्साह सम्बर्धन किया; एवम् उन रसिकों का कि जिन्होंने अपनी विशेष रुचि इस पत्र पर प्रगट की, और अपना अन्तरङ्ग प्रेम लिख कर हमें जतलाया। अथवा हमारे वे उदारमति सहयोगी भाषापत्र के सम्पादक समूह कि जिन्होंने न केवल इस पत्र की समालोचना कर केवल अपनी शुभ सम्मति प्रगट की, किन्तु और रीत पर भी सहज और त्वाभाविक स्नेह सूचित किया, और बहुत दिन तक कादम्बिनी न पाकर भी अपने अपने पत्र प्रेषित किया किये, किन्तु कोई कोई महानुभाव अबतक भी उसके स्मरणार्थ भेजते ही जाते हैं, कि जो मानों हम पर तकाज़ा और उनके असीम अनुग्रह के भार हो रहे थे, या जिन कृपाकर मित्रों, वा उन योग्य सत्पुरुषों को जिनके लेख भी सहायता रूप से आये और जिनमें बहुतेरे स्थानाभाव से न छपे, और जिसकी हम क्षमा चाहते हैं। इसी रीति उन ग्रंथकर्ताओं को जो अपने अपने नूतन ग्रंथ प्रायः आज तक कादम्बिनी कार्यालय को अर्पण किये, और उनकी समालोचना भी हम न कर सके। अत्यन्त निरुचरता के साथ उनके पूर्वोक्त असंख्य कृपा के चित्त से क्यों न बाधित हों। इसके उपरान्त हम अपने रसिकों से यह निवेदन करते हैं कि सचमुच जिस इच्छा और मनसूदे तथा जो कुछ कर्तव्य जान कर प्रथम लेखनी उठाई गई वा जो कुछ करिश्मा कर दिखाना चाहा गया था, उसको कुछ भी अंश पूरा करने का अवसर