पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/४९६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४६४
प्रेमघन सर्वस्व

की कमर है, हमारे रसिक हतोत्साह न हों क्योंकि असम्भव नहीं कि कोई ऐसा अवसर भी आये कि विचारी स्वयं अँकड़ जाँय, इसलिये कि अब उसके सन्मानाहार में कमी होने लगी।

कादम्बिनी ने यह भी कहा था कि मैंने चाहा है कि जहाँ तक हो सकै अवश्य अनूठेपन को काम में ल्याऊँ, और चाहे अभी अपने रसिकों को पूर्ण तृप्त न कर सकू पर तो भी एक दिन उनको अवश्य सन्तोष प्रदान करने की अभिलाषा इत्यादि। सो यद्यपि संख्या लेखों की अधिक न हुई अर्थात् जो लेख प्रथम संख्या में छये वे ही छपते रह गये फिर भी अब हम उन्हीं की जाँच के लिए आप लोगों को इबर दृष्टिपात करने की प्रार्थना करते हैं। इसमें सन्देह नहीं कि प्रथम तो हमारे कलम की कारीगरी का प्रमाण केवल कलम की कारीगरी ही है जो पद्य लेख में से है, इसी तरह गद्य लेख की अन्तिम अवस्था दिखलाने के लिये केवल तिवर्णन" पर्याप्त है, और "रूपक साहित्य" का लेख भी अवश्य उस अन्धकार के मिटाने में समर्थ है कि जिसके कारण हमारी भाषा में इस विद्या की सौन्दर्य का यौवन अद्यावधि नहीं झलका यद्यपि एक आध चुटकुले इस विषय पर लोगों ने लिखे, पर उनसे कुछ लाभ नहीं वे केवल अपनी विद्या दिखाने को हैं न औरों के सिखलाने को।

"प्रहसन" जो तीन लिखे गये यद्यपि वे सभ्य परिहास का पूर्ण स्वारस्य देने को यथार्थ में काफ़ी न थे,और परिहास का तो पूर्ण मानन्द तब तक असम्भव है कि जब तक पत्र स्वयम् स्वतन्त्र प्रहसनपत्र अर्थात पञ्च न हो। सच तो यह है कि जब तक किसी अच्छे सुयोग्य लेखक द्वारा कोई ऐसा पत्र न प्रकाशित होगा, यथार्थ में प्यारी हिन्दी की भोली बोली और हंसी ठिठोली कि जो उसके रसिकों को नित्य नई होली की समा दिखाये कैसे श्रवणगोचर होना सम्भव है। परन्तु हमारे रसिक इस स्वाद से सर्वदा वञ्चित न रहैं, इससे इस विषय में भी हमारा साधारण उद्योग था, और है यदि हम अपने रसिकों को इस विषय में उत्कण्ठित पावेंगे तो विशेष यत्न के करने पर भी बद्ध परिकर, होंगे। प्राप्त लेखों में "इतिहास सार" उपकारी और अच्छा था, यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि "न विद्यते खलु कांश्चिदुपायःसर्व लोक परितोष करोयः" अर्थात् ऐसी कोई उपाय नहीं है कि जो सबको प्रसन्नता और संतोषदाई हो अतएव "सर्वदा सुहितमाचरणीय किम् भविष्यति जनैर्वहु जप्लैः" अर्थात् इससे अपने जान हित का आचरण करना और लोगों को बकने देना