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नागरी नारद का पत्र परिचय

"महाशय! माफ़ कीजिये, मेरे तो समाचार पत्र के नाम भी सुनने से रोंगटे खड़े होते हैं, भगवान के निहोरे अब भी मान जाइये, क्यों निर्दोषियों के हलाकान करने की ठान ठानते हो? हम लोग बहुत कुछ दुख झेल चुके हैं" उन्हें जानना चाहिये कि हमारे इस पत्र का यह मन्तव्य कदापि नहीं है कि—

हठात् किसी एक दल के पक्ष का अवलम्बन कर दूसरे के साथ अन्याय का आचरण किया जाय, या किसी सत्पुरुष वा कुलीन का अन्तरङ्ग छिद्रान्वेषण कर सर्वसाधारण में उसके प्रकाश के यत्न से उन्हें भयभीत कर आत्मार्थ-साधन की युक्ति की जाय; वा उनकी चूक पर चोखी चुटकियाँ ले उनकी अन्तरात्मा दुखाई जाय, एवम् नानानिन्छ नाट्य और भयङ्कर दृश्य दिखा निज त्रुटि की पूर्ति को जाय, किन्तु यथान्याय केवल अपने उचित धर्म का पालन मात्र किया जाय। इसी भाँति न यह कि वहृत से ग्राहकों की अप्रसन्नतानुमानपूर्वक व्यापारसुलभ शैली का अवलम्बन कर उसमें त्रुटि की जाय; अथवा यह अनुमान कर कि अमुक विषय के आन्दोलन से अनेक जनरुष्ट होंगे अतः उचित वस्तु का त्याग भी कर दिया जाय, अथवा उसके विरुद्ध अङ्गीकार किया जाय या व्यर्थ बहुत से विज्ञापन और निष्फल समाचार या अन्य समाचार पत्रों को उद्धृत कर पत्रपूर्ति कर' अथवा क्षुद्र पद्यपुङ्गवों के सहजस्वारस्यवञ्चित व्यर्थ वघाडम्बर या कविता कलानिधि का केवल कलङ्क अवलोकन कराकर ग्राहकों को हतोत्साह लिया जाय तथा निज भाषा और देश दशा, समाजरीति, नीति सभ्यता, और सदाचार, राजकाज, न्याय और अन्याय अथवा साधारण प्रजा के दुख सुख की कुछ भी खोज न की जाय।

प्रत्युत इसका मन्तव्य तो यह है, कि समाज के वे दोष और कुरीतियाँ कि जिससे भारत निरन्तर भारत हो रहा है, सशिक्षामय लेख द्वारा यथा शक्ति उसके संशोधन की चेष्टा की जाय, एवम् ऐसे सुगम सुलभ सदुपाय' प्रदर्शन पूर्वक निज देश बान्धवों का जो आलस्य और उपेक्षा की निद्रा में अचेत सोते हैं, उत्साह सलिल मार्जन पूर्वक उद्योग के अर्थ उठाना है।

एवम् हमारी भाषा के उत्तमोत्तम सुलेखक जो किसी अनुकूल उत्तम पत्र के अभाव ही से मौन मारे बैठे हैं, उन्हें अपनी अनुपम योग्यता दिखाने का अवसर दिया जाय और यथा साध्य इस रीति स्वदेश भाषा का भण्डार भरा जाय, किन केवल' स्वदेशी ही रत्न रञ्चित हों, किन्तु अन्य देशीय काव्य