पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/५०६

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हमारा नवीन सम्वत्सर

हमारा यह नवीन सम्बतसर सामान्य औरों का मन माना-सा नहीं, कि जब से जी चाहा उसका आरम्भ मान लिया, वरञ्च वास्तव में हमारे नवीन सम्वत्सर का प्रिय प्रथम दिवस प्रथम ही से प्रथम सम्वतसर का प्रथम दिवस है, अर्थात इसी दिन से इस जगत की उत्पत्ति हुई, और ब्रह्मा ने इस संसार की सृष्टि की, जैसा कि हेमाद्रि में,—

"चैत्रे मासे जगद्ब्रह्मार्ज ससज्जिप्रथमेहनि।
शुक्ल पक्षे समनं तु तदा सूर्योदये सति॥

अतएव सच्चे सम्वतसर का प्रारम्भ यही है, इसकी सचाई में किसी विशेष अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं है, तनिक आँख उठाकर चारों ओर देखिए, और कह दीजिए कि हाँ ठीक कहते हो, ऐसा ही है। किसी सधन बन को जाकर देखिये तो कि कहीं एक भी पुराने पत्ते का नाम नहीं है, मानो सूष्टि कर्ता ने अभी अभी नई सृष्टि रची है, और प्रकृति दूलहिन अपना नया सिंगार साजे चली आ रही है। नवलदल पल्लव से लहलहाती लताएँ नूतन पत्र पुष्प फल से लदे वृक्षों से लिपट कर मानो नवीन सम्बतसर के शुभ अवसर पर अपने प्रियतमू से मिलकर आन्तरिक प्रेम का परिचय दे रही है, और उपायन स्वरूप नाना रंग रूप के फूल और फल परस्पर एक दूसरे को अर्पण करने की लालसा से दोनों लहरा रहे हैं जिनके मनोहर शाखाओं पर सुशोभित सुन्दर 'विहङ्गावलियां विनोद' से बधाई के ब्याज चहचहाती गाती चित्त को चुराती हैं। यदि उतनी दूर न जाइये तो भला किसी वाटिका में आइए कि जहाँ जिधर दृष्टि फेरिये और वाह! वाह! कह उठिये, कि प्रत्येक फूल की क्यारियाँ परियों को लज्जित कर रही हैं, और उनके प्रेमी मलिन्द आज मकरन्द के मद्य से मतवाले मारे मोद के नाचते घूम रहे हैं। शिशिर की रुखाई और तीक्ष्णता, हेमन्त की शीत को त्याग सरस स्निग्ध समीर सुखद शीतलताई और सुगन्ध से सनकर नवीन प्रकार से मन्द मन्द गति चलकर मन मुकुल को प्रफुल्लित करने लगा है। नदी, नद नवीन सलिल और ताल सरोवर अपने निर्मल और सुस्वाद जल में नवीन अङ्करित कमल कलिका को बिकसाना प्रारम्भ किया है। वन्यभूमि शुष्क तृण