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हमारा नवाम सम्वत्सर

पड़ता। हम लोगों को केवल इन्हीं अकार के बड़े मानों से सम्बन्ध हैः—

यथा वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष, सप्ताह, और दिवस सौर मास के अनुसार ६ मास का अयन, और मास का ऋतु होता है। चान्द्र—मास के दो भागों की पक्ष संज्ञा है, (अर्थात् क्रमशः चन्द्रमा की कलाओं के क्षय और वृद्धि के अनुसार कृष्ण और शुक्ल भेद से जो प्रायः पन्द्रह-पन्द्रह दिन के होते हैं) सप्ताह ७ दिन का चारों के अनुसार माना जाता। और उसका सातवाँ भाग दिन है। विशेष रूप से मास भी चार ही प्रकार के लोक के व्यवहार में आते हैं, जैसे सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और सावन। सौर अर्थात एक संक्रान्ति से दूसरी संक्रान्ति तक। चान्द्र के दो भेद हैं—अमान्त, और पौर्णिमान्त, अर्थात् अमावस्या से अमावस्या तक, अथवा पूर्णिमा से पूर्णिमा तक। नाक्षत्रमास २७ नक्षत्र व्यतीत होने पर और यों ही सावन मास ठीक ३० दिन का होता है।

इसी प्रकार धर्मशास्त्र के आचार्य माधो ने वर्ष पाँच प्रकार के माने हैं, यथा सावन, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और वार्हस्पत्य। अगले चारों के कारण और कार्य प्रथम कह पाये हैं, वार्हस्पत्य वर्ष व्यतीत होने पर जो कि प्रायः १२ सौर वर्ष का होता है जगत की दशा में कुछ न कुछ परिवर्तन होता है, और वर्ष के ऊपर एक सामान्य बड़े मानों में माना जाता है। १२ वर्ष पर कुम्भ आदि मेलों का व्यवहार अथवा अँगरेज़ी राजनियम के अनुसार मियाद की एक अवधि १२ वर्ष की यों भी मानी जाती ही है।

अब यहाँ यह शंका उत्पन्न हो सकती है, कि ८६ प्रकार को छोड़कर ४ वा ५ प्रकार के भी वर्ष यदि लोक के व्यवहार में आते हैं तो उनमें किसके आरम्भ से नवीन सम्वत् का आरम्भ मानना ठीक है? सो प्रथम तो अष्टिषेण ऋषि का वचन है, कि सम्वत्सरादि से प्रवृत्ति होने के कारण सदा चान्द सम्वत्सर ही का व्यवहार करना उचित है, सम्वत्सरादि से यहाँ कल्पादि से तात्पर्य है, और इसीलिए चैत्रशुक्ल प्रतिपद को कल्पादि ही कहते भी हैं।

स्मरेत सर्वत्र कर्मादी चन्द्र सम्बत्सरम सदा।
नान्यम् यस्मात् वत्सरादौ प्रवृत्ति स्तस्य कीर्तित॥
इसी भाँति ज्योतिष शास्त्र शिरोमणि में भी लिखा है कि
लङ्का नगार्या मुदयाच्चमानो स्तस्यैव वारे प्रथमं बभूव।
मधो सितादेदिनमास वर्ष युगादिकानां युगपत्प्रवृत्ति॥