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प्रेमघन सर्वस्व


लंका के सूर्योदय के अनुसार चैत्रशुक्ल शनिवार को प्रथम ही प्रथम दिन, मास, वर्ष युगादि की प्रवृत्ति हुई थी; अर्थात् यही टष्यादि काल कहलाता है।

इसके कारण को उसी शास्त्र "सिद्धान्त तत्वविवेक" में और भी स्पष्ट रीति से लिखा है—

लङ्कार्द्धरात्रे चलिताग्रहोच्चपातादयः स्युर्युगपच्च सर्वे।
नाड्याह्वयेजादियुदास्तदैव सृष्ट्या हये काल मुदाहरिन्त
कालेनयेनैतिपुनः सयोगस्तं सृष्टि कल्पं प्रवदत्ति संतः।

लंका में आधीरात के समय अर्थात् अधीरात ही से दिन का प्रारम्भ जोड़ा जाता है। ग्रहोच्चपातादिक सब नाड़ी बलय में मेषराशि के आदि में युक्त होकर चलित हुए थे, इसी को सृष्टियादि काल कहते हैं और जितने काल में फिर वह योग आता है उसको सृष्टि कल्प प्रलयकाल भी कहते हैं। यही ब्राह्मदिन कहलाता है। जैसे भगवान् मतु कहते हैं—

यदा स देवो जागर्ति तदेहं चेष्टते जगत्।
यदास्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वनिमीलति॥

जब ब्रह्मा जी जागते रहते हैं, तब यह जगत देख पड़ता रहता है, और जब वह सो जाते हैं। तब सब जगत प्रलय को प्रास होता है।

यद्यपि चन्द्र सम्बत् की श्रेष्ठता में एक प्रमाण दे चुके हैं, और यह भी बतला चुके हैं कि मास और तिथि चान्द्र मास ही के अनुसार माने जाते हैं, तथापि सामान्य रीति से बिचारने पर भी कुछ विशेषता इस चान्द्र मास ही में पाई जाती है, क्योंकि न केवल मनुष्यों की गणना और पञ्चाङ्गो के लिखने के अनुसार ही वरच प्रत्यद भो नित्य एक नवीन परिवर्तन क्रमशः चन्द्रमा की कलाओं की वृद्धि और हास से दिखाई पड़ता है। एवम् जो लोग शास्त्र प्रमाण नहीं मानते, और यह कहते की मनुष्य जाति स्वयम् उन्नति को प्राप्त हो अपने ही अनुभव से क्रमशः समस्त विषयों का ज्ञान लाम किया है उनके मत के अनुसार भी यही मानना पड़ेगा, कि प्रारम्भ में मनुष्यों को केवल चन्द्रकला के क्षय और वृद्धि ही से प्रत्येक दिन में भेद अवगत हश्रा होगा, और तिथि मासादि की गणना की शिक्षा मिली होगी।

अब यह प्रमाणित हो गया कि अनेक अन्य मानों में चान्द्रही सर्व प्रधान और मुख्य हैं और यही बर्ता जाता, और हमारे यहाँ के सब त्योहार