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हमारा नवीन सम्वतसर

और पर्ण केवल विशेष अवस्थाओं को छोड़ सामान्यतः इसी के अनुसार माने जाते हैं, वरञ्च यवनादि भी अपने अनलसट्ट तारीखी त्योहारों की जाँच के लिए भी इसी चान्द्र तिथि का आश्रय लेते हैं। फिर वर्षारम्भ इसे छोड़ कर और दूसरे के अनुसार क्यों माना जाय?

अब जो परस्पर अनेक संवत्सरों में कुछ कुछ भेद पड़ जाता है, वह आरम्भ में न था, क्योंकि कल्पादि में सब ग्रह नक्षत्रादिक में जो मेषराशि के आदि में युक्त होकर गति रहित हुए थे, वे सब एक बारही चले फिर पीछे निज निज गति के शीघ्र और मन्द होने के कारण क्रमशः भेद पड़ता गया। सो भी लौकिक मानों में से बार्हस्पत्य को छोड़ शेष ४ सावन चान्द्र सौर और नाक्षत्र में जो मुख्य है, प्रथम तो विशेष भेद नहीं पड़ता, और जो पड़ता है सो फिर भी कुछ दिनों में निवृत्त हो जाया करता है। वरञ्च कभी कभी ऐसा भी समय आ आता किं अधिकांश की एकता हो जाया करती है, जैसे कि इस सतयुग अन्त में अर्थात् जब से ग्रहों की गति का हिसाब ठीक करके सूर्यसिद्धान्त बनाया गया था जैसा कि ज्योतिष के मुख्य ग्रन्थ सूर्य सिद्धान्त में लिखा है किः—

अस्मिन् कृतयुगस्यांते सर्वेमध्यनगाग्रहाः।
विनातु पातमन्दोच्चन्मेषादौ तुल्यतामिताः॥

अर्थात् इस २८ को महायुग के कृतयुग के अन्त में समस्त मध्यम सूर्यादिग्रह मेष राशि के आदि में तुल्य हो गये थे, परन्तु ग्रहों के पात और मन्दोच्च तुल्य नहीं थे (इसका कारण स्पष्ट ग्रहों में भेद था)।

अस्तु यद्यपि यह निर्विवाद है कि हमारे यहाँ वर्षारम्भ कल्पादि अर्थात् चैत्र कृष्ण प्रतिपदा ही से होता, क्योंकि जिन आर्य राजाओं के सम्बत् वा शाके भारत में प्रचरित हुए, सब इसी दिन से बदलते गये; यह कदापि न समझना चाहिए कि योरोपियन और यवनों की भाँति किसी के जन्म वा मरण अथवा राज्याभिषेक के दिन से विक्रमादि के सम्वत्तू का प्रारम्भ माना गया है। तो भी भारत के मित्र प्रान्तों में आजकल इसके विषय में बहुत कुछ विभिन्नता देखी जाती है जैसे कि बंगाली लोग सौर मास मानते; और उसी की प्रत्येक विभक्ति तिथि को तारीख कहते वा हमलोग जिस भाँति पूर्णिमान्त चान्द्र मास मानते, तथा महाराष्ट्र लोग अमान्त मानते है। दक्षिण और पश्चिम के अनेक भाग में कोई कोई विजयादशमी और कोई