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प्रेमघन सर्वस्व

दीजिये, कि—आप ही की गुनगाहकता न्याय की हाट में वास्तविक क्या मूल्य रखती? कृपा कर विचार की कसौटी पर कसके समझ न लीजिए। तो आनन्द तो अलंग, आज के अलाप का कलह छोड़ दूसरा परिणाम ही न निकलेगा और प्रथम ही चुम्बन में गलकटौवल की कहावत चरितार्थ हो चलेगी। अतः यही संकल्प रहे कि उरहना परहनी न हो, केवल कुछ कुछ आवश्यकीय बातैं कहनी, अनकहनी कहनी न कहनी॥

अच्छा, परन्तु तौभी चाहे मैं लाख बातें लाख रीति से बना कर कह चलूँ किन्तु आपके चिर जिज्ञास्य प्रश्न तो आप का पेट फुलाए कान तक सकसे रह दूसरी बातों को वहाँ घुसने ही न देंगे। अतः अवश्य ही आवश्यक सूचना पाचक प्रयोग से प्रथम उन्हें शमन करना ही समीचीन होगा। क्योंकि आप में से अनेक महानुभाव जब कभी प्राइवेट पत्रों की पतंग बढ़ाते, वा संयोग से कहीं मिल जाते, तो लाख बात को छोड़ केवल एक इसी बात का बबण्डर लाते, और उसे अत्यन्त आग्रह के आकाश तक पहुंचाकर तब साँस लेते। बहुतेरे बारम्बार अस्वीकार उत्तर का तिरस्कार करके भी निरन्तर नई नई सीख सिखाते, और उचित अवसरों पर अपनी नई नई अनुमति बतलाते और कादम्बिनी के पुनः प्रकाशित करने की सौह दिलाते ही रहे हैं। कोई कोई प्रकाश रूप से समाचार पत्रों में फटकार बतलाते, अपनी अप्रसन्नता वा उत्कण्ठा जतलाते, एवम् कभी कभी कोई चोखी चुटकियाँ ले चैतन्य कराते, वा और की ओट में चित चाही चोट चलाते ही रहे। सारांश कादम्बिनी के चातक चुप न रह अद्यावधि पूर्ववत् चहँकार मचाते ही चले जाते रहे, और हम चुप-चाप सुनकर भी अनसुनी कर जाते ही रहे। क्योंकि कई बार की परीक्षा से कुछ इसी प्रकार का अनुभव प्राप्त कर सोच विचार अन्त को ऐसी ही ठान ठान लेनी पड़ी थी। चातकों में न केवल सामान्य विद्या, बुद्धि और और वित्त, वा वृत्ति ही के मनुष्य; वरञ्च बड़े बड़े राजा, महाराज, पण्डित, कवि, वकील, राजकर्मचारी, प्रेमी, भक्त, योगी, और महात्मा! न केवल उदासीन, वरञ्च आत्मीय, बन्धु बान्धव सुहृद समस्वभाव, अनुग्राहक महानु भाव जिनमें कोई कहता, कि—

"क्यों साहिब! कृपा कर मला बतलाइए तो, कि आपही ने न आनन्द कादम्बिनी की आदि माला के प्रथम मेघ के पत्र परिचय में लिखा था कि—"सच पूछो तो जब से कविवचन सुधा का स्वाद "सुधा सुरपुर में जा बसा, और हरिश्चन्द्र चन्द्रिका के चन्द्रिका का चमकीलापन और