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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

मनोहरता का गुन मोहनपन के परदे से ढँप गया, और उस प्राणोपम परम प्रिय हरिश्चन्द्र ने कि जिसे भारतेन्दु क्या संसार-सूर्य कहना योग्य है, अपनी लेखनी को आनन्द के कलमदान विश्रामालय में स्थान दिया, दिया बिन मन्दिर सी दशा को भाषा प्राप्त भई। सैलानी दिल घबराने लगा, उँगलियाँ कलम उठाकर कहने लगी कि अरे! न सोलह आने तो खैर पाई ही सही, पर कुछ न कुछ करतूत कर अपने भाषा के रसिकों को आश्वासन देना तो अवश्य आवश्यक है।' मैं पूछता हूँ कि वह सैलानी दिल अब क्यों नहीं घबराता? उँगलियाँ अब क्यों नहीं कलम उठाती है वहीं आपने फिर कहा था, कि—'ईश्वर ने चाहा तो क्या आश्चर्य कि सैरबीन का समा सुझा आपकी आँखें दिल के सहित हर्षित और प्रफुल्लित कर दूँ, और समस्त संसार की एक मात्र राजराजेश्वरी श्रीमती महाराणी संस्कृत देवी की चिरजीविनी बालिका श्रीमती नागरी कुमारी के नवीन बनक और हाव-भाव कटाक्ष की चोखी छुरियों से बीबी उकी जो सदैव अपनी छल छद्रता के कारण सन्मान के अभिमान से नाक भौं चढ़ाया करती है, बायें हाथ से नाक पकड़ दाहिने की मदद से काट कर चिहरा सफाचट्ट करके तब छोडू, और शव अधिक कहाँ तक कहूँ, भगवान ने चाहा तो कर दिखलाता हूँ।' सो अब तो ईश्वर की कृपा से आप से आपही उस बिचारी के गले पर छुरी चल गयी; बहुतेरे खून लगा कर शहीदों में भी शामिल हो चुके; और मुद्दतों की माँगी मुराद बर आ गई, तब आप क्यों चुपचाप बैठे हैं ११ कोई कहता कि—"बरसों बन्द रहने के उपरान्त जब फिर कादम्बिनी निकली तब आप ने लिखा था, कि—'यद्यपि जब से इस का सम्पादक सहायक समीर सांसारिक सोक सैल की सैल में जा दत्तचित्त हुना, इसने भी कत्सित समय सरद जान विश्राम के आँचल में मुंह छपाया, और यद्यपि इसकी प्रेमी मयूर मण्डली तभी से कक कककर अपना असीम प्रेम प्रगट करती रही, पर बहुतेरे रसिक चातकों ने तो बह चहँकार की रट लगायी, कि चुप हुयेई नहीं। और ऐसी दशा में यही उचित जान निश्चय हुआ, कि जो हो, इनके तृप्त कर देने में चाहे कुछ कसर अभी क्यों न रहे, परन्तु ये तृषाकुल तो न रहें, और श्रीमती नागरी देवी कि जिसका एकमात्र प्राश्रय भारतेन्दु श्री हरिश्चन्द्र था आचाञ्चक मूमोड़ छोड़ भागने से प्राप्त दुःख दुखिनी को कुछ भी तो आश्वासन दिया जाय। यों तो इस जगत के जंजाल के उलझन से सर्वथा सुलझे रहना अत्यन्त असम्भव है, क्योंकि न यहाँ आ केवल नल, हरिश्चन्द्र,