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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

ऊपर की है, हमारी वह नवीन मित्र मण्डली जिसका सविस्तर वृत्तान्त प्रायः नागरी नीरद नामक साप्ताहिक पत्र के 'गुप्त गोष्ठी गाथा' नाम के शीर्षक स्तम्भ में प्रकाशित होता रहा, संगठित हुई। और जब जब उसके समक्ष यह प्रश्न उपस्थित हुआ, तो मेरे लाख लाख आपत्ति करने पर भी मण्डली से यही स्थिर हुआ, कि—नहीं नहीं प्रथम साप्ताहिक समाचार पत्र ही प्रकाशित करना चाहिये और यथासाध्य उसी को इस प्रकार सावधानी से सुसज्जित करना चाहिये कि जो मासिक पत्र का काम दे, और उसमें जब भली भाँति कृतकार्यता हो जाय, तब अवश्य पुनः कादम्बिनी भी निकाली जाय। बस, फिर क्या था, विवश हो प्यारी कादम्बिनी की सुधं भूल नीरद ही के निकालने पर उद्यत होना पड़ा, और वह सर्वसामान्य के नेत्रोत्सव का हेतु हो चला। परन्तु अत्यन्त खेद पूर्वक कहना पड़ता है कि पूरे चार वर्ष भी समाप्त न होने पाये, कि वही लक्षण अागे आये, जिसके लिये लोग पूर्वही से चेताये गये थे। हमारे सब मित्रों की अभिलाषा पूर्ण हो गई, मेरी सब बातें समझ पड़ी, उत्साह कपूरवत् अदृश्य हुआ, परस्पर लोग आपस में एक दूसरे को दोषी बना बुनू बैठ रहे। मैं प्रथम ही से कहता रहा कि, यारो! जिस चाल पर मासिक पत्रिका का चलाना कठिन होता; साताहिक का साहस क्यों करते हो, पर उस दून की सूझ में कोई क्यों सुनता था। उक्त पत्र के विषय में जो मनसूबे बाँधे गए थे उसके षोडशोश की भी पूर्ति न हो सकी, और वह विचार बिना किसी सूचनाही के आशा दुराशा के आकाश में अन्तर्धान भी हो गया! और यहां नित्य नये नये उपाय और उद्योग के लिए विवाद होता ही रहा। अन्त को नितान्त दुःसाध्य जान लोग इस विषय में मुझे स्वतन्त्र और निज मनमानी करने की अनुमति देकर चुप हुए। मैं भी अपने पुराने विचारानुसार परिणाम देख, और अपने मित्रों की बहकावट में पड़ निज मत के विरुद्ध कार्य करने के दोष को समझ और आगे अधिक निष्फल प्रयत्न करना व्यर्थ जान चुपका हो रहा।

मित्र मण्डली में नाना प्रकार से पुनः उसे चलाते ही चलने की चर्चा होती रही, परन्तु मैं कदापि उसपर कान न देता और समझता कि इन्हीं लोगों के ऐन्द्रजालिक जाल में पड़कर धोखा खाया है, अतः अब "न गङ्गदतः पुनरेति कूपम् का पाठ कराठ किया करता। पर वह कब सुनते, जब मिले सब यही प्रश्न—"कहिये कहिये अब क्या स्थिर किया? नीरद कब दृष्टिगोचर होगा? कादम्बिनी कब रस बरसायगी? क्या कहें जब से अपने