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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

और अन्त को सोच विचार करके फिर यही निश्चय करना पड़ा, कि "अकरणान्मन्दकरणं श्रेयः।" किन्तु जैसेही मैं स्वीकार का आकार दिखलाने लगा कि फिर मित्रों की मण्डली सम्मति दे चली, और पुनः वही सब प्रश्न आ उपस्थित हुए जिन्हें कर कर के पछता चुके हैं। अस्तु, बड़े बड़े वादाविवाद के बाद यह निश्चय हुआ कि—नीरद नहीं, कादम्बिनी ही निकाली जाय। और बस अबकी वर्षा का प्रारम्भ होते ही आनन्द कादम्बिनी की भी वर्षा अयश्यमावश्य प्रारम्भ हो चले। परन्तु वर्षा पाती और चली जाती। सावन आता, भाद्रपद आता, किन्तु उत्साह न पाता। क्योंकि, चित पर इस विचार का अधिकार अब तक अटल है, कि—चाहे किसी दंगल, सर्कस, जादू के खेल, या रंगशाला में घुस प्रसन्नता से लोग सहीने में चार बार दो दो चार चार रूपया सहज में देकर प्रसन्न रहें, परन्तु निज भाषा के कैसे ही अच्छे पत्र वा पत्रिका के लिए वर्ष भर में दो चार रुपया कष्ट से भी टेंट से निकालने वाले देश बान्धवों की संख्या अभी देश में बहुत ही थोड़ी है। और अपनी भाषा की उन्नति वा उसके अर्थ भी कुछ कर्तव्य वा दातव्य है, इस विचार से युक्त मष्तिष्कवाले लोग तो कदाचित् इस युक्त प्रदेश में नितान्त ही न्यून हैं। और जो है, तो वे शक्ति शून्य हैं?

कहिए तो आप ने किस राजा महाराजा के दर्बार में कभी कोई हिन्दी समाचार पत्र वा मासिक पत्र पढ़ा, सुना, वा देखा जाते देखा है? किस अमीर वा रईस के हाथों में उसे कभी खुला अवलोकन किया है? किस राजकर्मचारी की मेज़ पर रक्खा भी लखा है? और किस ग्रैजुयट के चश्मे के तले उसे पढ़ा जाते पाया है? कदाचित् आप अवश्य ही कहेंगे, कि नहीं नहीं वा, कदाचित्। तो हम कहते हैं कि फिर जब तक पूर्वोक्त जनों में इसका पूर्ण प्रचार न होगा,हमारी भाषा की भी उन्नति कदापि न होगी। हमारे राजे, महाराजे वा रईस, अमीर लोग पायोनियर, इङ्गलिशमेन, वा सिविल मिलीटरी गज़ट के स्थान पर चाहे लण्डन टाइम्स, इलस्ट्र टेड लण्डन न्यूज़ अथवा लण्डन पञ्च के ग्राहक क्यों न बन जाओं, और चाहे डर, शुश्रूषा वा कीर्ति लाभार्थ ही क्यों न उसे अत्यावश्यक, परमावश्यक और नितान्त आवश्यक मान उनके मूल्य से सौगुना द्रव्य भी दे देने में कुछ क्लेश अनुभव न करें; किन्तु निज भाषा के पत्रों के अत्यन्त अल्प मूल्य को उपकार बुध्या देने में भी मानो दिवाला निकल जाने का सा डर अनुमान करते हैं। बड़े-बड़े राज कम्मचारी और सुबृहत् उपाधिधारी पश्चिमीय भाषाविशारद देश बान्धव भी