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प्रेमघन सर्वस्व

की शोभा के हेतु वा उसके अलंकार कहने के योग्य थे, और वास्तव में थे; तो उनकी मण्डली में जो आनन्द आता था, आज उस आनन्द को मन वास्तविक आनन्द नहीं मानता। जैसे समाज में तब बैठकर खाना, पीना, सोना भूल जाते थे, आज उसमें कदाचित् मन बहलने की भी आशा नहीं पाते हैं। जिस प्रकार के लोगों का दर्शन तब शरच्चन्द्र वा प्रफुल्लारविन्द तुल्य नेत्रों को नितान्त आनन्ददायी, वरञ्च उन्हें तृषित चकोर और मत्त मधुकर बनाई देने में समर्थ सा था, अब वह दुस्सह दु:खदाई और बचने बचाने के योग्य समझ पड़ने लगा। तब जिनसे मिलने और बातें करने के लिए चित्त में चटपटी पड़ी रहती थी, अब उन्हें देख दूर भागने ही में कुशल की आशा होती है। तब जिन्हें अपना और श्रात्मीय समझते थे, बहतेरे उनमें पराये और बिगाने जनाने लगे। जिन्हें मित्र और सूहद समझते थे, उनमें अनेक बैरी और विरोधी को भी भुलाने लगे। जिन्हें प्रिय और जीवन धन जानते वरञ्च श्राराध्यदेव सा निरन्तर हृदय में स्थान दिये थे; अब उनका स्मरण भी दुखद हो यही स्मरण कराता है, कि—"उन सब मुल्फ में खोया किये नदान रहे।" अस्तु संसार के निःसार नाते देखभाल चित्त की वृत्ति ही कुछ दूसरी हो गई। तब जो बातें प्रसन्न हो कहते थे, अब उन्हें सुनना भी नहीं चाहते। तब जो लिखकर प्रसन्न होते थे, अब उसे देखना भी सह्य नहीं और जिस कृत्य से तब अलभ्य लाभ अनुमान करते थे, अब उस्की चर्चा भी नहीं सुहाती। फिर इस विषय में भी उत्साह न होना क्या आश्चर्य है? तौभी जब २ वर्षा याती, नीरद नागरी नीरद और कादम्बिनी आनन्द कादम्बिनी की सुध दिलाती, अथवा गम्भीर निर्वाष के मिष मानो चेताती, कि—क्यों अब क्यों देरकर रहे हो? तुमारी प्रतिज्ञानुसार तो सावन आया और बीत भी चला, तो अवश्यही चित्त चातक सा उत्कण्ठित हो उठता विशेषतः कादम्बिनी के रसिक और मित्र मण्डली के मित्र मयूरों का उत्कण्ठा कलरव और भी प्रोत्तेजित कर देता। यद्यपि यह विचार प्रारम्भ हो जाता, कि अब तो एक से एक बड़े २ और उत्तमोत्तम पत्र और पत्रिकाएँ नित्य नये रग ढंग से निकल ही रही है, तुमारे ही चार पृष्ठ काला करने बिना क्या हानि हो रही? विशेषतः जब कि अपने मन के मनसूबे के अनुसार कार्य भी नहीं कर सकते, तो श्राधे मन का कार्य भी कैसे ठीक होगा। किंतु क्या किया जाय कि अनेक मित्र भी इसी हठ पर लेखनी नहीं उठाते कि जब लिखेंगे तो नीरद वा कादम्बिनी ही में। और उनके कथनानुसार यह