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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्बत्सर

भी एक आक्षेप का विषय है, कि—आनन्द कादम्बिनी जिसके नाम से यन्त्रालय नित्य ही चलता है, वह स्वयम् बन्द रहे, जिस मनोरथ से प्रेस आया वही न हो और संसार भर का व्यर्थ कार्य हो। इसी प्रकार क्यों सब पत्र चले, और यही अकेली बन्द रहे? जहाँ बड़े २ पत्र और पत्रिकाये हैं, वहाँ एक छोटी सी कादम्बिनी भी यदि अपनी डेट चावल की खिचड़ी अलग पकाती रहे तो क्या अनुचित हो? इसी तर्क वितर्क और ऊहापोह में वर्षा बीतती, और दूसरी वर्षा पर विचार छोड़ा जाता, और नवीन वर्षा पर नवीन उत्साह प्रबल पूर्वानिल प्रवाह की प्रतीक्षा होती।

किन्तु हाँ, जब से कि नागरी देवी के वर्णवैचित्र ने इस देश के राज प्रतिनिधि के मन को मोहित किया, और कई सौ बरस के पीछे फिर इस देश की राजसभा में उसका प्रवेश प्रारम्भ हुआ; और वह महत्कार्य जिस के लिए आगे बड़े बड़े लोगों ने बड़े बड़े उद्योग करके भी कुछ फल प्राप्त न कर पाया था, समय पाकर हमारे दो एक मित्रों के निरन्तर उचित उद्योग के फलस्वरूप में सिद्ध हो उनके अमल यश का हेतु हुआ, देख चित्त को अकथनीय आनन्द के अतिरिक्त विशेष सन्तोष भी प्राप्त हुआ। और यह भी निश्चय हो गया कि—थोड़ा भी कार्य करने से ईश्वरेच्छानुकल रहने पर विशेष फलोदय भी हो जाया करता है, यथा "झूठेहूँ कीने जतन कारज गिरत नाहिं। कपट पुरुष लखि खेत सों जैसे मृग फिरि जाहिं।" अतएवव अन्त को यही विचार निश्चय हुआ कि जो कुछ तुमसे भी हो सके, अपने देश और भाषा की सेवा कर चलो, उन बड़ी २ बातों की सुध भूल जावो, सम्भव है कि इसी बीज से भगवान उस वाञ्छित बड़े विटप को भी उत्पन्न करदे कि जिसके लिए उसने कोई विशेष समय नियत किया हो।

अस्तु, गत श्रावण में जो कादम्बिनी का पुनः प्रादुर्भाव करना निश्चय कर कुछ कार्यवाही श्रारम्भ करनी चाही, तो गत वर्ष की भाँति मित्रों की फिर विविध प्रकार की अनुमतियों की बौछार आ चली, फिर दिल दहल चला और मैं घबरा चला क्योंकि हमारे मित्र मण्डली के मित्रों में जो कई उत्साह के समुद्र, तो दो एक उनमें साक्षात अगस्त्य, अनेक उन में सर्वतों भावेन प्रशंसाके पात्र, तो कोई कोई एकाध बात में ऐसे, कि जैसे कुछ। जो जैसी जैसी कृपा उनकी नीरद वा कादम्बिनी के विषय में हुई, समझकर यही कहना पड़ता है, कि खुदा दुश्मनों से न दिखलाये इगिज़। जो कुछ दोस्त अपने से हम देखते हैं।" प्यारे पाठको!