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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्बत्सर

प्रिय पाठक वन्द! इस प्रकार यह आनन्द कादम्बिनी अनेक उपद्रव और विनों से बचकर चिर दिनों के उपरान्त अाज फिर श्राप की सेवा में उपस्थित होती है, आपकी उदारता से दृढ़ श्राशा है कि अवश्यमावश्य आप इसे आदर दीजियेगा, और इसकी न्यूनतात्रों पर दृष्टि न दीजियेगा। वरञ्च सच्चे चित्त से ईश्वर से अवश्य यह प्रार्थना कीजियेगा, कि वह इसे शीघ्र सर्वगुण सम्पन्न कर विनों को हरता हुश्रा दीर्घजीवी बनाये। और यह बहुत दिनों तक आप लोगों के मन को लुभाये।

ईश्वर सदैव सानुकूल रह रक्षा करतार है। शुभमस्तु।

अनेकानेक धन्यवाद उस करुणा वरुणालय को, जिसकी कृपा कणिका के प्रभाव से आज हमें अपने प्रिय पाठकों को नवीन वर्ष की बधाई के संग आनन्द कादम्बिनी के भी नवीन वर्षारम्भ की बधाई देने का शुभ अवसर उपस्थित है। सुतराम् यथोचित शिष्टाचारान्तक यदि उनसे कुछ व्यतीत बरस की बात करें तो कहाँ तक और छोड़ें तो कैसे, कि जिसमें ऐसे ऐसे दुखड़े झेलने पड़े कि जी ही जानता है और संसार सूत्रधार ने इस पृथ्वी नाट्यशाला में ऐसे ऐसे अनोखे दृश्य दिखलाये कि उसे देखने का कब किसी को कभी स्वप्न में भी मान था। भला कहिये तो, कि जब अनेक यूरोपियन शक्तिशाल वा व्याघ्र वृन्द ने बारम्बार अति उत्तेजित हो उग्रभाव से गरज गरज कर उद्दण्ड भृक्ष रूप से मञ्चूरिया मेष के छोड़ देने के अर्थ कहा और वह प्रमत्त पशु केवल हाँ हाँ कहता अनाकानी ही करता रह गया और जब सबी निराश हो चुपके हो रहे; तो करुणास्पद कुतिये सा कोरिया को भी धीरे धीरे उसे कवलित करता देख बीर विडाल जापान के गुरगुराने में भी कुछ तत्व है; यह कब किसने सोचा था? अथवा आचाञ्चक यह विडाल ऋक्ष पर जा टूटेगा और प्रथम ही झपेटे में उसे पूर्ण विध्वस्त वाबस्त कर देगा? फिर न एक बार, न दो बार, वरश्च सौ बार और बारम्बार उसे हार पर हार देता नितान्त श्रात करके संसार पर अपना असह्य अातङ्क स्थापित कर देगा? यह कब किसने समझा था कि निरन्तर अधःपतन शील पूर्व देश का सौभाग्य सूर्य लौट कर फिर जहाँ का तहाँ, अथवा कहाँ से कहाँ जा पहुँचेगा? यद्यपि यह स्वाभाविक नियम है, कि पूर्व से प्रकाश फैलाता सूर्य पश्चिम को जाता और फिर वहाँ से पूर्व पर श्रा पुनः पूर्ववत प्रकाशित होता है, तो भी यह कब किसे विश्वास था कि पश्चिमी शक्तियों को त्रस्त कर जो जापान उनसे एक परम असभ्य