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प्रेमघन सर्वस्व

क्षुद्र मूषक समझा जाता था, वह एक ही विजय पाकर परम सुशिक्षित, परम सभ्य और परम समर कुशल वीर बा व्याघ्र अथवा समस्त गुण आकर प्रमाणित हो जायगा? फिर उस भयङ्कर समर की समाप्ति का शोर छोर भी कत्र किसे सूझता था? यों परस्पर सन्धि की भी कब किसे आशा थी, कि जो समरारम्भ और विजय की भाँति आश्चर्य से शून्य न रही? आज देखिये,—रूस की स्थिति में भी सन्देह हो रहा है और जिधर सुनते हैं, जापान की तूती बोल रही है। रूस का सर्वथा अपने को अजेय समझ कर नितान्त अहङ्कारान्वित और लोमान्ध हो जाना और जापान का उचित अवसर पर अपने परम कर्तव्य कर्म के अर्थ प्राणपण पूर्वक उद्यत हो जाना ही इस अपूर्व परिवर्तन का कारण है। फिर जगत को त्रासदात्री मुसलमान जाति पूज्य सवत्कृष्ट सम्राट सुलतान रूम विचारे दिन दिन दबते "दवा बनियाँ सौदा करे।" के आदर्श बनते जाते. तो चीन पर कुछ नवीन आशा का संचार हो चला है।

अब यदि अभागे भारत के राजनैतिक आकाश की ओर दृष्टि दीजिये तो वह कुछ और ही रंग बदलता सा लखाई पड़ता है। कहाँ भूत भारत प्रभु लार्ड कर्जन का अगला रूप और उनकी प्यारी-प्यारी बातें, फिर दिल्ली दर्बार से ले दूसरे बार के प्रागमन पर्यन्त की विविधि कूटनीति के बबण्डर, उद्दण्ड दर्प, उपेक्षा और अहङ्कार माङ्कार, और उनके विलक्षण कृत्यों को देख क्या कुछ न्यून अन्तर लखाई पड़ता था? करुणास्पद तिब्बत आक्रमण, खेदजनक ईरान प्रस्थान, और व्यर्थ काबुल को दूत दल संप्रेषणादि बातें भूलकर भी प्रत्यक्ष भारत सम्बन्धी प्रबन्ध प्रभृति अनेक विषयों को छोड़ यदि केवल कुछ प्रधान राजनैतिक चालों, अटपटे आख्यान वा अनुष्ठानों को स्मरण करते हैं तो अचाञ्चक किसी उर्दू कवि का यह कथन यथार्थ अनुमित होता स्मरण भाता है, कि

"फ़लक को कब ये सलीका था सितमसारी में?
कोई माशूक है इस पर्दये ज़ङ्गारी में॥"

"जिनकी वक्तृताओं के प्रत्येक वाक्य गम्भीर अर्थ और राजनैतिक व्यंग से भरे रहते, जिनके बुद्धि वैभव का वारापार न था, जिनके विचार परम असम्भव होने पर भी केवल प्रलाप नहीं प्रतीत होते थे, उनके युनीवर्सिटी ऐक्ट के पास करने की लीला और उसमें दोष देख उसके संशोधन का व्यापार कुछ और का और ही भाव भासित कर चला। श्रीमान् अपने दोषों पर पश्चाताप