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प्रेमघन सर्वस्व

विरति विदेसी वस्तु सन सीत भीत अधिकाय।
शुभ सुदेस अतुराग मय कुसुम समूह सुहाय॥
कियो प्रफुल्लित सस्य सो सिल्प सुगन्ध बढ़ाय।
सम जीवी मधु मच्छिकन को जनु प्रान बँचाय॥
आनन्द को अति यह विषय संसयकछू जामैं नहीं।
पर भयङ्कर हेमन्त सों यह सिसिर सोचहु सहजहीं॥
कृषि हानि प्रद उत्पात या को धरम जाहि कहीं कहीं।
तुम लखहु, ताके समन हित करिये जतन अति बेगहीं॥
निज ग्रमाद पाला परयो जहँ तह धीरज धारि।
छमा वारि सींचिय तुरत भागत दोष निवारि॥
राज कोप के उपल सों सावधान अति होय।
रहियै रचक बीच सो सकत नास करि सोय॥
राज भक्ति को अति वृहत तासों छप्पर छाय।
ऊपर वाके राखियै जासों भय मिटि जाय॥ इत्यादि।

कहिये यह कैसी कुछ विचित्र ईश्वरी लीला है? अस्तु, यद्यपि अब ईश्वर की कृपा से इस शिक्षानुसार प्रमाद बन्द है, किन्तु कदाचित् उद्योग नहीं।

सभा समाज।

नेशनल काँग्रेस इक्कीसवें वर्ष बनारस में पहुँच अपने यौवनाविभाव की अनोखी छटा दिखा कर दर्शक मात्र का मन मोहित करने में समर्थ हुई! वास्तव में आगे कभी ऐसा उत्साह उसमें नहीं दिखलाई पड़ा था। यों ही इण्डस्ट्रियल कान्फरेन्ट, सोशल कान्फरेन्स, राजपूत महासभा, नागरी लिपि वा एक लिपि प्रचारिणी सभा, आर्य समाज, नागर सभा, यवन सभा, बङ्गालियों की स्वदेशी प्रचार सम्बन्धी सभा, कलवार महासभा तक तो वहीं हो गई और कहाँ-कहाँ किसकी-किसकी महासभा नहीं हुई। किन्तु काशी ही में अब के दो अनहोनी सभायें भी हो गई, अर्थात् भारत धर्म सहामण्डल और पण्डित मदन मोहन मालवीय प्रस्तावित भारतीय विश्वविद्यालय स्थापिनी सभा, जिसमें अपूर्व प्यारा उत्साह बरसता लखाता था। प्रयाग में इस कुम्भ पर जिसे हिन्दू धर्म का महामेला कहना चाहिये वही सनातन'वर्म महा सभा के रूप में अति विशाल श्राकार धारण कर आर्य प्रजा मात्र को उत्साहित और आश्वासित करने में समर्थ हुई। ईश्वर शीघ्र उसे