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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्बत्सर

कृतकाय्य करे। भारत धर्म महामण्डल ने भी बड़े ही धूम धाम से वहाँ अपना ठाट दिखलाया। सभाये प्रायः दोनो संग हुई। किन्तु दोनों एक होकर भी सर्वथा एक न हुई। तौ भी विरोध नहीं हुआ, यही हर्ष का विषय है। यदि दोनो यथावत अपने अपने कार्य मे सच्चे चित्त से सलग्न रहै तो अवश्य ही देश के वास्तविक सौभाग्य की हेतु होगी।

नागरी।

अवश्य ही नागरी भाषा ने अपने बड़े-बड़े सेवक और सहायक इन दानों वर्षों मे खोये, जिनके नाम स्मरण कराकर हम अपने पाठकों को पुनः शोकाकुल करना नही चाहते, तो भी कई नागरी के पत्र-पत्रिकाओं ने अपने कई अशों में उन्नति की।

यद्यपि प्राय नागरी भाषा के पत्रों की परस्पर वादाविवाद परिपाटी सम्प्रति अति विकृत रूप धारण करती जाती है, क्योकि लोग निज पक्ष समर्थन और विपक्ष के खण्डन से केवल चुभता चुटकियो हो पर सन्तोष नहीं करते, वरश्च अपने वाक्य-वारणों से प्रतिवादी का मर्म भेदन करना ही कृत कार्यता का कारण मानने लगे हैं। किन्तु प्रत्यक्ष गालिप्रदान द्वारा विजय लाम को वासना बडी ही लज्जास्पद और शोकजनक है। वह न केवल हमारे पत्र वा सम्पादक अधवा पत्र प्रेरकादि ही, बरच हमारी भाषा के भी गोरव हानि की हेतु है। शोक से कहना पड़ता है कि हमने कई प्रतिष्ठित पत्रों में देश के परम प्रतिष्ठित वरञ्च पूज्य पुरुषा तथा सम्भ्रान्त कुल कामि निया के सम्बन्ध में भी ऐसे ऐसे घृणित वाक्यो के प्रयोग होते देखे हैं, सिका स्मरण हमे अद्यावधि दुःखदायक होता। क्या देश के सुशिक्षित और सभ्य कहलानेवाले समुदाय की ओर से स्वदेश और स्वभाषा के सेवकों को सेवा का अब यही पुरस्कार मिलने का समय आ गया है। अत्यन्त शाक से प्रकाशित करना पडता है कि गत वर्ष हमारे नगर के कई नवशिक्षित लेखकों ने भी कुछ दिन पर्यन्त ऐसी ही रुचि के बशवर्ती हो महीना कई पत्रों के अनेक कालम क्लुषित करके हमारे परिताप के हेतु हुये थे। आज भी हम कई पत्रों में ऐसे ही वादाविवाद और मनबहलाव की धूम देखते हैं। इसी से उनके सम्पादकों, और पत्र प्रेरकों से सानुरोध यह प्रार्थना करते हैं, कि—अवश्य ही वादाविवाद समाचार पत्रों का धर्म है, उसे जहाँ तक सम्भव हो आप लोग प्रचरित रक्खै, परतु मादा का उल्लङ्घन न