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प्रेमघन सर्वस्व

ही नहीं था। महाराज रघु की विजय दुन्दुभी गरज गरज कर दसों दिशाओं से पूछती थी, कि क्या कहीं संसार में कोई ऐसा भी वीर वर्तमान है, जिसके गर्व कानन को जलाकर हमारा प्रतापानल तृप्त हो? किन्तु कहीं से किसी का कुछ भी पता नहीं लगता था। अन्त समय तक भी अर्जुन के बागों का संसार में शेष लक्ष्य न था।

राक्षसेन्द्र रावण को जिसके सम्मुख युद्ध में मनुष्य की तो क्या कथा, देवता भी नहीं खड़े हो सकते थे, क्या महाराज रामचन्द्र से कुछ भी पराजय की प्रतीति थी? किन्तु उन्होंने समुद्र में सेतु बांध तापस ही रूप से पहुँच कर लंका सूनी कर दी! वैसे ही यद्यपि एकही सनातन धर्म की पताका इस पृथिवी पर उड़ती लखाई पड़ती थी, किन्तु बात की बात में वह बात जाती रही और दूसरा ही वात बहना प्रारम्भ हुआ! जब कि ब्राह्मण स्वार्थ लोलुप, तप, स्वाध्या, स्वाध्याय, परोपकारादि से हीन, राजा विषयपरायण और आलसी हो गये, तो उनकी अनुगामिनी मजा भी मनमानी कर चली। धर्म के नाम से पाप हो चला! बुद्ध भगवान उत्पन्न हुए। भारत आकाश पर कुछ और ही रंग के बादल छा गये! क्रमशः सनातन वैदिक धर्म का प्रकाश लुप्त सा करती, बौद्ध धर्म की जड़ दूर दूर के देश और दीयों में पहुंच कर दिग विजय कर चली। यद्यपि सत्य सनातन धर्म अत्यन्त हीनावस्था की पहँच चला था, तौभी शारया का प्रतापादित्य अपने प्रेखर यातप से दूर दूर के देशों को उत्तप्त करता ही रहा। प्रियदर्शी अशोक श्रादि की आज्ञार्य भारत से मिन्न संसार के सबी प्रान्तों के नरपतियों द्वारा सादर शिरोधार्य की जाती थीं। किन्तु जब मूल न रहा, शाखायें कैसे हरी रह सकती हैं। सनालन, वैदिक धर्म के साथ ही भारत के भी अवनति का सूत्रपात हो चुका था। बौद्ध और जैन धर्म ने क्षत्रियों को शक्तिहीन और निर्जीव बना दिया नवीन धर्मसुधार की चिन्ता ने चित्त में राजनैतिक विचार का स्थान नहीं रहने दिया। भारतीय साम्राज्य के असर प्रताप को लोग सहज समझने लगे और सिकन्दर से प्रलय पराक्रसियों को इधर पाने का साहस हो चला।

अब दूसरी ओर यदि देखिये तो उस सनातन धर्म के, जिसका कहीं ठिकाना पता भी नहीं था, पुनरुद्धार के अर्थ यत्न करने का संकल्प अकस्मात् केवल दो ही चार मस्तिष्क में उत्पन्न हुना, जिसे कि उस समय के लोग केवल शेखचिल्ली के मनसूबे सा नितान्त फल शून्य समझते रहे होंगे, किन्तु उसी सामान्य उद्योग का यह प्रभाव हुआ कि जिस सनातन धर्म