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प्रेमघन सर्वस्व

तथापि ये साहसहीन नहीं हुए और कदर्यता का दोष अपने ऊपर आने न दिया। यवन जता भी यहाँ सुख की नींद न सो सके, वे केवल पाशव बल से देश को निष्कण्टक न कर सके, वरच अपने नवीन ऋर धर्माभास के श्रम में पड़े उत्पात करते, बलात् प्रजा के धन, धर्म, प्राण और प्रतिष्ठा पर निरन्तर आक्रमण करने के कारण एक प्रकार के लुटेरे वा देश के बैरी से बने रहे। इसीसे मुगल सम्राट अकबर ने, जो बड़ा ही चैतन्य नीति निपुद, तया'धम्म के वास्तविक सिद्धान्तों को समझता था, अपने सुमल्मानी पत को स्वाभाविक जधन्यता और क्रूरता तथा मिथ्याविश्वास को छोड़, राजनति की वह परिपाटी प्रचारित की, कि यदि सचमुच चैह उसके वंशधरों से कुछ दिनों और भी निर्वाह की जाती, अथवा यदि औरंगजेब के स्थान पर कहीं दराशिकोह दिल्ली के राज सिंहासन पर बैठा होता और दो चार पीढ़ी भी से ही नीति निपुण शान्ति स्वभाव सहृदय सम्राट हुए होते, निश्चय सारा भारत हिन्दू मुसलमान उभय जाति के भेद भाव और द्वेष से शून्य हो गया होता किन्तु अदूरदर्शी औरङ्गजेब आ धर्म के लोप करने और भारत को अरब बनाने की लालसा में मुगल साम्राज्य को गारत करने का उपक्रम आरम्भ कर चला। उसने अकबर से भतिमान की नीति को निकम्मी नमक केवल कुनि के कथन पर कान दे यही अनुमान कर लिया कि बिना नखड़े होकर चिल्लाये स्वर्ग का द्वार कदापि नहीं खुल सकता! वह काफिरों को खुदा का अन्दा न मानकर अपना बन्दा समझ, वही पुराने जङ्गलीपन के श्राचार वाले पिछले शासकों की उद्दण्डता का अनुकरण कर मुसलमानी राज्य के उत्पात को भूली प्रजा के मन में पुनः पहिली आशङ्का उत्पन्न कर, असन्तोष की आग भड़का, अपने सहायकों को शुत्र बना, प्रशान्त देश में फिर मार काट प्रारम्भ कर भारत से मुसल्मानी राज्य का मानो अन्त कर चला।

अब यदि कोई उस समय के देश की स्थिति पर दृष्टि दे यह विचार करता, कि क्या मुसल्मानी शासन से ग्रस्त इस देश की चिर पराधीन प्रजा के वैमनस्य वृक्ष से कभी इस फल की भी श्राशा हो सकती है कि वह धुनः अपना स्वाधीन साम्राज्य स्थापित करेगी तो उसे कब यह सम्भव समझ पड़ता? किन्तु नहीं, ईश्वर की इच्छा तो है, उसी वैमनस्य और आत्मोद्धार की उम इच्छा ने एक छोड़ यहाँ दो धेस एसे प्रबल हिन्दू राज्य स्थापन कर दिये कि जिन्हें साम्राज्य कहने में भी किसी को मंकोच नहीं हो सकता, अर्थात्