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प्रेमघन सर्वस्व

और चलते चलाते बङ्ग भंग के संग प्रजा की भक्ति और विश्वास तथा बृटिश राज्य की शान्त स्थिति के मूल में ऊध्या जल दे गये! वंगीय प्रजा अपने प्रबल प्रतिवाद का कुछ भी फल न देख अत्यन्त हताश हो गई। अन्त में जोगो की जो कुछ आशा भारतामात्य के न्याय पर अड़ रही थी, मिस्टर जान मारली ने उस आशा की भी जान मार ली।

निदान बंग देश ने सब प्रकार की आशा त्याग कर स्वावलम्बन की ठान और विवश ही उन्होंने अपने उद्धार के उपाय में सर्व प्रथम स्वदेशी द्रव्य न्यीकार और विदेशी वस्तु बहिष्कार की शपथ खा ली कि जो वास्तव में विदेशी अनुशासकों के प्रमादनिद्रा के भंग करने के अर्थ एक अति चोखी चुटकी थी! प्रथम तो अनुशासकों ने इसे केवल प्रजा प्रलाप समझा, किन्तु न देखा कि बात की बात में सब लोग चैतन्य हो विधिवत इसका अनुष्ठान कर चले, तो छक्के छूट गये। दूसरों की जातीय उन्नति के संहारकारी गुरु घण्टाल जी ने इसे भेद और दण्ड नीति के अवलम्बन से दबाने की युक्ति बतला कर अपने देश की अटल हानि. वरञ्च अवनति का सूत्रपात कर मानों उस भड़की अनि में घी की आहुति दे चलते हुए और बिलायती भाँटा माँड़ से एङ्गलो इण्डियन समाचार पत्र उनकी हां में हां मिलाते, तालियां बजा कर हर्ष प्रकट करने लगे। जिसका फल यह हुआ कि वह सामान्य बङ्गदे शीय विचार समस्त भारत में फैल गया और कदाचित् देश के शिक्षित मात्र का इस विषय में अब एकही मत है जो कभी मिटता नहीं दिखाता, परञ्च दिन दूनी तो रात चौगुनी उन्नति करता चला ही जा रहा है। अब कौन कह नकता है कि इसका फल शासक जाति विदेशीय वणिक समूह के अर्थ जिसके हाथ में वास्तविक साम्राज्य-रथ की डोर है, उत्कट हानि जनक न होगा? फिर जब उन्हें अपने इन अदूरदर्शी मित्र स्वरूप परिणाम शत्रुओं की अटपटी चालों का ज्ञान होगा, तो उनकी कोपानि में पड़ इनकी क्या गति होगी, समझना महज है। कौन कह सकता है कि ये वर्तमान राजकर्मचारी जो अपनी कूटनीति के प्रबन्ध से उत्कट कीर्ति की लालसा कर रहे हैं, अति भयङ्कर अप कोर्ति की पश्चाताप शिला के नीचे पड़ न कुचले जायेंगे।

अब फिर यह विचार उपस्थित होता कि बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ मेल जो चशिक भण्डली यहाँ व्यापार के लिये भाई और अकस्मात् सम्राट बन बैठी, अपनी अदूरदर्शिता, अहंकार और उद्दण्डता के अभिमान के कारण अधिकार से च्युत हुई और राम राम कह जो फिर किसी प्रकार यहाँ के लोगों की.