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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

सहायता से भारत में व्रिटिश राज्य स्थापित हुआ, जिसका उद्देश्य बारम्बार राजा और बड़े-बड़े राज्याधिकारियों से प्रकाश रूप से यही बतलाया गया कि "हमारा राज्य यहाँ केवल भारत के हित साधन के अर्थ है, अपने लोगों के लाभ के अर्थ कदापि नहीं" क्या यह सब केवल हमारे भोले भाईयों के फुसलाने ही के अर्थ मिथ्या वाग जाल रचना थी! अवश्य ही इस पर विश्वास करने को जी नहीं चाहता; वरञ्च यही अनुमान होता कि वास्तव में कहनेवालों ने तो करने ही के लिये इसे कहा था, परन्तु वे कर न सके। और करनेवाले स्वार्थान्ध हो अपनी इच्छानुसार कर चले, जिन्हें कोई रोकने में नसथन हुया और न होता दिखलाई देता है, यद्यपि देश में घोर ऋसन्तोष फैलता जा रहा है। क्योंकि भारतीय प्रजा जिस के दो अथवा तीन भाग किये जा सकते हैं, सब इस पर सहमत है कि अंगरेज़ी राज्य में दरिद्रता और दुःख बहुत बढ़ गया है, यदि उसका कुछ शीघ्र प्रतीकार न हुआ तो यह देश नष्ट हो जायगा। दुष्काल, महँगी तथा रोग बढ़ता चला जाता और प्रजा उच्छिन्न होती जा रही है, एवम् निरन्तर सरकारी कर की अधिकता सब के धैर्य का लोप कर रही है। अब बिना सन्देह के सब गवार लोग भी जिनकी संख्या शिक्षितों से कहीं अधिक है, कहने लगे हैं कि देश का अन्न और धन अंगरेज लोग लूटे लिये जा रहे हैं। वे अति चिन्तित और उद्विग्न होकर अपने शिक्षित भाइयों से पूछते किवताश्रो, किस भाँति निस्तार होगा! जिन्हें वे अपने यत्न से दूर करने की अाशा दिलाते हैं।

शिक्षित मण्डली दो भागों में विभक्त हो गयी है। एक शान्त वा धीर दलवाले और दूसरे उग्र वा अधैय्यं दल के लोग। अर्थात् जो बाईस वय. पर्यन्त कांग्रेस कर के अपनी आवश्यकताओं की पुकार मचा अब गवर्नमेन्ट की कृपा और न्याय से हताश हो, स्वावलम्बन पर तत्पर हो अपने उद्धार का उपाय श्राप करना चाहते और जिनके अन्य अनुष्ठानों के संग मुख्य स्वदेशी स्वीकार तथा विदेशीय वस्तु बहिष्कार है। शान्त नीति वाले यद्यपि और मब बातों में उनसे सहमत हैं, तौभी दे गवन मेन्ट से अभी अपनी आवश्यकताओं की प्रार्थना करते ही जाने के पक्षपाती है, योही यद्यपि कैसे ही अधीर क्यों न हो गये हों, तौभी कोई ऐसी बात कि जिनसे अनुशासक वा गजकर्मचारी जन सष्ठ हो, कहना नहीं चाहते। हमारी समझ में यह भेद केवल राजनैतिक बुद्धि से अत्यन्त न्यून और केवल कहने ही सुनने के अर्थ। है, वास्तव में आवश्यकता और उद्देश्य दोनों के एक ही हैं। सबी अपने