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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर

हरिश्चन्द्र जी के संग जब हम लोग उनकी सेवा में सतशिक्षालाभार्थ उपस्थित होते, तो सदा यह चिन्ता खड़ी रहती कि उर्दू बराबर आगे बढ़ती चली जाती और हिन्दी की उन्नति की कुछ आशा नहीं दिखाती। कुछ दिन पीछे जब भारतेन्दु की पुस्तकों की संख्या अधिक हो चली और राजा साहिब को उसपर अपनी सम्मति प्रकट करने का अवसर मिला, तो वह यही कहते थे कि अधिक संस्कृत मिश्रित हिन्दी ठीक नहीं और न इसका प्रचार सम्भव है। किन्तु अब देखते है तो इतने बड़े अनुभव शाली विद्वान के मत के विरुद्ध दृश्य देखने में नाता कि हरिश्चन्द्रीय हिन्दी का अनुकरण कर देश में विशुद्ध नागरी भाषा ही आज प्रचलित हो रही है, योही जिस हिन्दी का सम्यक प्रचार भी असम्भव प्रतीत होता था उसे अब लोग राष्ट्रभाषा बनाने का प्रयत्न करते हैं।

दूसरा समय वह था कि जब बाबू हरिश्चन्द्र ने "कवि वचन सुधा को मासिक से पाक्षिक और फिर साप्ताहिक पत्रिका स्वरूप दे अपनी लेखनी की पुष्टता दिखलाते हुये अनेक छोटे मोटे ग्रन्थ प्रकाशित कर लोगों को यह विश्वास दिलाया कि हिन्दी यदि अच्छी लिखी जाय तो उसके भी पाठक देश में हैं। यद्यपि 'बालाबोधिनी' तथा 'भगवद्भक्तितोषिणी' नाम की दो और पत्रिकायें भी उन्हों ने निकाली थीं, परन्तु मुख्य 'कवि वचन सुधा' थी, जो वास्तव में कवि वचन सुधा बरसाती, योंही हरिचन्द्र चन्द्रिका अपनी अनोखी चमक दमक से दूसरी भाषा के प्रेमियों की आखों में चकाचौंध मचाती थी। यद्यपि उनकी प्राहक संख्या न्यून थी, उसमें भी दाम देनेवाले बहुत ही स्वल्प, और मद्यपि न द्रब्ध, लेख, वा अन्य साधनों की न्यूनता के कारण क्योंकि उनके सम्पादक बहुत बड़े धनी, उदार, विद्या रसिक, वैतनिक और विद्यानुरागी अनेक सहायकों से संयुक्त, उत्साही सजन थे; लेखनी भी उनकी अहर्निश चला ही करती थी, तौभी वे पत्र पत्रिकाये न तो निरन्तर निकलती और न प्रायः समय से; जिस कारण उन्हें बारम्बार दुःख होता अन्त को इसी दोष के दूर करने को उन्हें इन पत्रों को दूसरों को सौंप देना पड़ा। यह कैसे आश्चर्घ्य का विषय है कि बाबू हरिश्चन्द्र हिन्दी के सिद्धहस्त गद्य लेखक और एक अच्छे श्राशुकवि थे, किन्तु इन दोनों में कहीं अधिक उनमें पत्र सम्पादक होने की एक विशेष योग्यता थी कि जो बहुतही विलक्षण श्री, तथापि उनके पत्रों की तो यह दुर्दशा कि छपाई देने भर को भी मूल्य न मिले और ऐसे लोग कि जो दस पंक्ति भी सीधी और शुद्ध हिन्दी व लिख सकते,

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