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प्रेमघन सर्वस्व

रद्दी पत्रो को भी निरन्तर निकाल कर मालामाल हो गये। अवश्यही आरम्भम से बाबू साहिब ने इन पत्रों को केवल द्रव्योपार्जन के लिये नहीं निकाला था, तौभी अन्त पर्यन्त इनकी ऐसी दशा न हो सकी कि उनकी इच्छानुसार ये अपने बल पर आप चल सकते। निदान औरों के हाथों पड़ यद्यपि वे समय से निकलने लगे, और उन के लिये उनकी आय यभी यथेष्ट थी, किन्तु उनसे उस लेख लालित्य का स्वाद जाता रहा जिनसे उनका मान था, सुतराम् उनका निकलना और बन्द रहना लोगों की दृष्टि में समान था। साराश बाबू हरिश्चन्द्र तो फुटकर पुस्तके लिखकर अपनी लेखनी की लालसा मिटा चले और उनके अन्य सहायक लेखको मे से कई लोगो ने अपने स्वतन्त्र पत्र निकाले और यही मानो इस आनन्द कादम्बिनी के प्रादुर्भाव का भी हेतु हा, जैसा कि उसके आरम्भ मेघ में कहा गया था,—

"प्रथम यहाँ रसिक समाज के रसिकों की बडी उत्कण्ठा थी कि, इस उत्तम नगर से कोई नागरी भाषा का ऐसा पत्र निकाले, कि जिस के द्वारा इस भाषा का जौहर दिखाया जाय और उक्त समाज के सभ्यों के वचनामृत की वर्षा कर दूर दूर के प्रेमियों को सुखी करै, और एक हिन्दी भाषा में पञ्च प्रहसन पत्र निकालने के लिये बड़े धूमधाम से विज्ञापन कविवचनसुधा आदि पत्रों मे दिया, और सौ ग्राहक हो जाने पर प्रकाश करने की प्रतिज्ञा की थी, परपञ्च को पञ्चपरपञ्च आन के केवल पञ्च ग्राहको के स्वीकार पत्र आये, और इसी प्रपञ्च मे पञ्च का प्रपञ्च ज्यों का त्यों रहा। फिर बराबर दिल का तकाजा कलम से होता रहा, कमी प्रेस ऐकूट के डर से डराते, और कभी अपने देशी भाषा के समाचारपत्रों की दशा दिखलाते और समझाते।***

"सच पूँछो तो जब से 'कवि वचन सुधा, से सुधा का स्वाद "सुधा सुरपुर में जा बसा और हरिश्चन्द्रचन्द्रिका की चन्द्रिका का चमकीलापन और मनोहरता का गुण मोहनपन के परदे से ढँप गया, और उस प्राणोपम परमप्रिय हरिचन्द्र ने कि जिसे भारतेन्दु क्या ससार सूर्य कहना योग्य है, अपनी लेखनी को आनन्द के कमलदान विश्रामालय में स्थान दिया वे मन्दिर सी दशा को भाषा प्राप्त भई, सैलानी दिल घबराने लगा, उँगलिया कलम उठा कहने लगा कि अरे न सोलह आने साखर पाई ही सही, पर कुछ न कुछ करतूत कर अपने भाषा के रसिकों को आश्वासन देना अवश्य है"