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आनन्द कादम्बिनी का नवीन सम्वत्सर


पाठक समझ सकते है कि कादम्बिनी का प्रादुर्भाव केवल उन प्रशसित पत्रों के अभाव मे हिन्दी प्रेमियों की चटपटी दूर करने, वा यो कहिये कि वसन्त की प्यारी चन्द्रज्योत्सना सेवन से आहादित, अकस्माल ग्रीष्म के उत्ताप से सन्तप्त हृदय स्वभाषा रसिको को वर्षा बलाहकावली के मनोहर दृश्य से सन्तुष्ट करने, अथवा स्वर्गीय सुधा धारा के प्यासों को सांसारिक सुधा, सलिल सीकर ही की वर्षा कर आश्वासन देने के अर्थ था, और यद्यपि अब आगे से कहीं अधिक नागरी भाषा का प्रचार हो चला है, दैनिक, साप्ताहिक और मासिक पत्र पत्रिकाओं की संख्या सैकड़ों तक पहुच गयी है, जिनमे कइयों के रङ्गरूप और आकार प्रकार उन के समान देखने में आते, विचित्र चित्र विचित्र होने और मुद्रण की उत्कृष्टता मे कोई उन से अच्छे और सुन्दर भी क्यों न हों, किन्तु "वहिरेव मनोहराः।" उनके भीतर के पत्रे पत्र उलट-पुलट कर देखने पर जब अद्यापि कही उस रस का लेश नही मिलता, तो कादम्बिनी मे भी यदि केवल उस अश की न्यूनता रहती, तो कुछ विशेष आश्चर्य का विषय न था। यद्यपि इसमे वह स्वाद सदैव सुलभ था, क्योंकि हमारे निज परिवार के अतिरिक्त न केवल उन पत्रा के अधिकांश सहायक सुलेखकों ही से कादम्बिनी को समान सम्बन्ध था, वरञ्च स्वयम भारतेन्दु भी इसे अपना ही पत्र समझते, लेख मेजते और बहुत प्रेम रखते थे, और यद्यपि इसके विषय मे हमारे और उन के मत मे सदा भेद मारहा किया, जैसा कि वह इसका आकार पाच फार्म और मूल्य पाच रुपये वार्षिक चाहते थे, किन्तु हम केवल छोटे आकार को विशेष सरस करने और बिना अम और सहायता के स्वयम् लिखकर भी सदैव समय पर प्रकाशित कर देना सहज समझने के कारण उनसे सहमत न थे, क्योंकि इसका उद्देश्य केवल कुछ अनोखी लेखनियों का लालित्य लखाना ही मात्र था, और यद्यपि अवश्य ही उसके इस छोटे आकार से सदैव बडा ही मान पाया क्योंकि न केवल उसी समय के सामयिक पत्र और हिन्दी के प्रेमी तथा मुलेखकों ने इस पर अपना हार्दिक हर्ष प्रगट किया, वरञ्च ईश्वर की कृपा से अद्यावधि सब सहदय स्वभाषा प्रेमी जन इस पर वैसोही कृपा दिखलाते चले आते हैं, तौभी आश्चर्य और शोक पूर्वक यही कहना पडता है कि हम अपनी इच्छानुसार इसे अद्यापि वैसी न बना सके जैसी कि चाहते थे। न इसमे उस प्रकार का प्रचार दे सके जैसा कि विचार किये थे। यदि कभी उसका आरम्भ किया भी, तो बस आरम्भ ही रह गया? यो जिन आवश्यक