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प्रेमघन सर्वस्व

सुधारो के पश्चात् इसके आकार की उन्नति का आरम्भ समझते थे, अब तक उसका अवसर न पाया क्योंकि और तो और, प्राय सदैव इस मे कुछ नीरस और अनावश्यक अश आता ही रहा जो इसके छोटे आकार में अधिक जँचता, और ऐसा होने पर भी अन्य प्राप्त लेखों के लिये स्थान संकोच का कारण होता, जिस से न केवल अनेक सुलेखको के सदैव अनमने होने वरञ्च हमारे भी खेद का हेतु होता रहा, जैसा कि इस मेघ मे यह राम कहानी कि जो मुख्य वक्तव्याशके संकोच का कारण हुई है। ऐसेही प्राय सामयिक मेघोचित केवल अपने ही लेख पूर्णत समावेशित न हो सकते और न यह समय से प्रकाशित ही हो सकती।

प्रथम काशी मे इसके छपने का प्रबन्ध था एवम् यद्यपि प्रारम्भ अवसर के होने से और भी कई कठिनाइया होती, जिससे यह अनुमान होता कि यह केवल घर का स्वतन्त्र यन्त्रालय खोलने से जाती रहेगी, परन्तु उस न्यूनता की पूर्ति पर भी पूर्ववत व्यवस्था देख अधिक खेद होता। अपनी शिथिलता और अनवधानता को यदि दूर करते—क्योंकि इसके सम्पादन और सशोधन मे हमे 'प्राय किसी अन्य का सम्मेल असह्यसा होता—तौभी जब कृतकार्य न होते तो विशेष विसमित होना पड़ता, जैसे कि बीते वर्ष यदि कुछ यह समय से निकली, तो प्रबल प्लेग के प्रकोप से कई मास तक यन्त्रालय खोलने ही का अवसर न मिला। जब हम लोग बाहर से आकर यहा एकत्रित भी हुए, तब विवाहादि के कारण यदि कुछ दिनों, तो अनेक रोगादि के कारण कुछ दिनों और भी इसकी सुध भूली रही। सारांश भारतेन्दु के पत्रो केऔर कई गुण इममे चाहे न आये हों, परन्तु कुछ दोष तो अवश्य ही आया। कौन जाने कदाचित् उनकी ममत्वबुद्धि का इसे केवल यही एक प्रसाद मिला हो, जिस के मिटाने की वारम्बार चेष्टा की गयी पर यदि कुछ दिन वह दोष एक रीति से दूर मी होता, तो दूसरी भाँति से पुन आकर हमारे खेद का कारण होता रहा। कई बार इस के विषय मे कई प्रकार के परिवर्तन भी करने पड़े जिसका विवरण और आख्यान भी कई बार हम इसी अवसर पर कर चुके हैं। कई बार इसे बन्द भी कर दिया और दूसरे के हाथों प्रबन्ध भी दे दिया था, किन्तु उसमे यह बडी कठिनाई ना पडती कि फिर लेखनी इस की ऐसी सुध भूल जाती कि लिखने का नाम भी न लेती और तब फिर कुछ चारा न चलता। यद्यपि हमारी भाषा की दो एक मासिक पत्रिकाओं को छोड़ सब में यह दोष दीख पड़ता है तौभी प्रायः चित्त में सहसा