पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/५५

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बेसुरी तान

वाह क्याही ढंग पर आये! अच्छे रहे! शाबाश! शाबाश! क्यों न हो आप ही तो है, क्या कहना है, आपही का काम था, कि जिसका कविवचनसुधा नाम था, पर जब से आगे का कवि चला गया, और पीछे से शब्द सुधा भी सूधा निकल गया, केवल बचन बच रहा, तिस पर भी आप ने जो इतना टिन फिस्स किया तो बड़ा परिश्रम पड़ा, यह बेसुरी तान और यह अनजान राग बन्धन, यह धन्य आप का साहस है। पर पहिले क्या आप पड़े सोते थे जो अब जगे। या तब आप अपने आप में न रहकर कहीं हरियाली की सैर करने तो नहीं गए थे। वा कुछ पत्र का मतलब ही न समझ में आया! अथवा पढ़ा नहीं था! परन्तु न पढ़े होते तो अपने नम्बर ३ भाद्र शुक्ल ४ के पत्र में ऐसा क्यों लिखते कि "हम बड़े हर्ष के साथ आनन्द कादम्बिनी नामक मासिक पत्रिका को स्वीकार करते है; इसके विषय भी मनोरंजक और उत्तम है ईश्वर इसे चिरायुब करे" जिसका गत संख्या में हमें भी बहुत सोच साच के धन्यवाद देना पड़ा; यद्यपि हमको इसके कारण की खोज तभी से थी, परन्तु अब निश्चय हुछा कि इससे अलग कोई इसका और कारण नहीं, अर्थात् सम्पादक महाशय पंछहिलोअल कर सुनी बात अनसुनी करना चाहते थे, कि कोऊ लानत-मलामत दे दृढ़ किया कि नहीं! कुछ जवाब देना अवश्य चाहिए, झूठा हो या सच्चा उचित हो या अनुचित, चुपचाप बैट जाना ठीक नहीं; अब लिखने वाले की खोज हुई (क्यों की श्रापका लिखा तो कदाचित साल में कहीं एकाध पंक्ति, किसी विज्ञापन वा सूचनादि में हो तो हो नहीं तो नहीं सही) निदान लेख पाया अब विचार होने लगा कि क्या लिखं, कहाँ से दोपले श्रावें इसके शरीर में श्यामता कैसे कह बतलायें, फिर सूर्य के प्रकाश से चमकती दोपहरी में तम कहाँ दिखलावें।

अब बिचारे को बिचार से लाचार हो अनाचार पर कमर बाँधनी पड़ी निदान जो यहाँ नीबू के नमकीन आचार का स्वाद आया, जी खट्टा हो गया उकलाई आने लगी व्याकुलता से जा समालोचना साहित्य के गढे में

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