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प्रेमघन सर्वस्व

कारी है। किन्दु जहाँ तक अनुमान हो सकता है उससे तो यही निश्चय होता कि केवल कठोर दण्ड से अब इसका दमन असम्भव है, कारण कि प्रजा की आवश्यकता की प्रार्थना न सुनने ही से इसकी उत्पत्ति हुई है और कठोर दण्डविधान ही से इसने बढ़ कर रक्तबीज का स्वरूप धारण किया है। सो प्रजा की आवश्कतायें अभी पूर्ववत जैसी की वैसी ही है। उनकी पुकार और मचलाहट मी विगत वर्षों से अधिक और राज्यधिकारियों की "प्रसन्ने दमरी-द्मादप्रसन्न वराटिका" की बोल भी वैसी ही है। सारांश उभय पक्ष की ऐंटन कुछ अधिक ही होती जाती, कुछ भी दिलाई का लक्षण दिखाई नहीं पड़ता। इसी प्रकार देश में भाँति भाँति के दुखों की अधिकाई भी बढ़ती ही जाती है। बद्यपि सब लोग उसके दूर करने का यत्न करते ही थके जाते और आगे के लिये नये उत्साह में उसके हटाने के प्रयासी होते लखाते हैं। अब देखना है कि ईश्वर कब किसे सिद्धि देता है।

वस्तुतः गत वर्ष हिंदी जगत को भी अत्यन्त हानिकारी हुआ कि जिसमें उसने अपने अनेक अमूल्य रत्न खोये! क्योंकि मुन्शी उदित नारायण लाल और बाबू राधाकृष्ण से सच्चे हिंदी के उपासक और ग्रन्थकार, पण्डित माधव प्रसाद मिश्र तथा बाबू बालमुकुन्द गुप्त से प्रौढ़ सुलेखक और पत्र सम्पादकों का वियोग अवश्य ही उसकी न्यून क्षति नहीं कही जा सकतीः योंही पं॰ कालीशंकर व्यास अथवा गो॰ वामनाचार्य गिरि आदि पनपते पौधों का सूख जाना भी उसके लिये शोकजनक हुआ है।

"बागे दुनिया में बाग़बाने अजल दिल को तकलीफ हमेशा देता है।
गुञ्चन्ये नाशि-गुफ्तः को अफसोस! जब कि चाहे है तोड़ लेता है॥"

यद्यपि इस वर्ष नागरी भाषा के अनेक नवीन सम्वाद पत्र और मासिक पत्रिकायें प्रकाशित हो चली हैं, 'भारतवासी' 'भारत' 'हिन्दी हिन्दू', 'पञ्च' और 'सम्राट' तथा पत्रिकाओं में 'देवनागर' 'कमला' नृसिंह 'माड़वारी' आदि का प्रकाशित होना हमारी भाषा के अभ्युदय के साक्षी हैं। किन्तु शोक से कहना पड़ता है कि जैसे सुलेखक इस भाषा की सेवा छोड़ चले जाते, नवीन उत्पन्न होते नहीं दिखलाते हैं। सम्प्रति सामयिक पत्रों में राजनैतिक और अनेक ऐतिहासिक तथा विद्या विषयक लेख भी अच्छे प्रकाशित होते तौभी अधिकतः अनुवाद से ही विशेष पूर्ति होती। यद्यपि इन में अनेक प्रयोजनीय विषय होते, जिन का हमारी भाषा में आना हर्षदायक है, किन्तु