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नवीन वर्षारम्भ

फिर भी शोक से कहना पड़ता है कि साहित्य सम्बन्धी वास्तविक पुष्टि का अभाव देखने में आता और किसी न किसी प्रकार पत्र पूर्ति का प्रयास ही झलकता कि जो उस उन्नति के उत्साह को बहुत कुछ फीका बनाता है। बहुतेरे नवीन लेखक तो अपने लेखों को पुष्ट और मनोरञ्जक बनाने के ना हान के स्थान पर अट्ट सट्ट कुछ लिखकर किसी प्रकार छाप देने ही से अपने को कृतार्थ मानते, वे सर्व सामान्य के सन्मुख अपने ऐसे उपायन को उपस्थित करने में भी कुछ संकोच नहीं करते कि जिस से वे उनके मनोरञ्जन के स्थान पर अश्रद्धा उत्पन्न हो जाने की भी आशंका करते हैं! हमारी भाषा की उन्नति का सच्चा आरम्भ दिवस तबी होगा कि जब योग्य लोग सच्चे श्रम से उसकी कुछ सजावट की चिन्ता करेंगे। अनेक मासिक पत्र कविता विषयक भी निकलते हैं। कई के स्थान पर यदि एक ही पत्र निकले, किन्तु उसमें ग्रन्थाकार पुष्टः पद्य प्रबन्ध निकले, तो विशेष लाभदायक हो। पूर्तियां भी यदि अच्छे विषय और अच्छे अच्छे पूरकों के परिश्रम की छंटी प्रकाशित हों तो इन अनेकों से एक भी सराहनीय हो। योही उपन्यासों तथा उसके पत्रों की यद्यपि आज भरमार है किन्तु हम उसे अपनी भाषा की उन्नति नहीं कह सकते, वरञ्च बहुतेरों की भाषा शैली तो उलटी हताशा लाती। यद्यपि इनमें भी प्रायशः अनुवाद' ही से अधिक सहायता ली जाती और वह कछ अन्यथा नहीं, किन्तु यदि प्रकाशतः अनुवाद स्वीकार किया जाय। योंही नवीन रचनाओं में गद्य काव्य की फलक लाने, कछ परिश्रम स्वीकार कर मस्तिष्क लड़ा विशुद्ध भाषा और भाव के संग विद्या और शिक्षा लाने से भाषा का उपकार सम्भव है, न कि केवल ऐसी कहानियों के लिख डालने से कि जैसे लोग प्रायः जबानी कहा करते और जिनके पढ़' डालने के पीछे केवल नेत्रों को कछ कष्ट होने वा समय व्यर्थ जाने के अतिरिक्त पाठकों को और कुछ लाभ न हो। अब यदि हम सामान्य हिन्दी मापा भाषी प्रजा के कर्तव्य पर ध्यान देते हैं तो सब से अधिक हताश होना पड़ता कि उनका अनुराग अपनी भाषा के विषय में अभी बहत ही न्यून है। अवश्य ही करोड़ों हिन्दी बोलनेवालों में अद सहस्रों ऐसे लोग मिलेंगे कि जो सामयिक समाचार जानने वा कहानियों से मन बहलाने के अर्थ दो चार रुपये वार्षिक व्यय उठा पत्र पाठकों में निज नाम लिखा लें, किन्तु वास्तविक साहित्य मर्मज्ञों की संख्या तो कदाचित् सैकड़ों से अधिक होनी असम्भव है। उसमें से समर्थ उत्साहदाता जन तो