पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/५५९

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उसी की यह भी कृपा मान मौन मार रही जाना पड़ता है। अवश्यही इस विषय में ईश्वर पर सर्वथा दोषारोप अयोग्य है, क्योंकि विशेष रूप से देखा जाय तो वास्तव में यह देश भी ऐसे ही दण्ड के योग्य है—"काबिल था इसी के व यही थी सज़ाये दिल" जहाँ के नितान्त निन्दनीय नर अद्यापि अपने हिताहित के विचार से विमुख प्रत्यक्ष सर्वनाश के विधान में भी उत्सुक और उससे त्राण पाने के यत्न में सर्वथा उदासीन से आसीन, अथवा गहित स्वार्थान्धता के कारण देश द्रोह कूप में गिरने के अर्थ लपके चले जाते हो, उनकी गति इसके विपरीत होनी ही मानो उस न्यायमय जगदीश्वर के कृत्य की विडम्बना प्रदर्शित करती। आगे को जाने दीजिये आज ही देश के कुलाङ्गार किस "यत्परोनास्तिनृशंसता" के करने में पश्चात्पद होते नहीं दिखाते हैं। तब किस मुँह से हम उसके वा किसी के अन्यथाचार का उपालम्भ दें? दूसरी बातों को भूल इसी के सम्बन्ध में जब हम देखते हैं कि गवर्नमेण्ट बहत जाँच पड़ताल कर जब कुछ लोगों को नितान्त असमर्थ निराधार और अकिञ्चन जानकर आधा या चौथाई पेट भरने भर का सहारा देने को दो-दो तीन-तीन रुपये मासिक देती, तो सुना कि कहीं-कहीं उसमें से भी पटवारी, आदि चौथाई वा अष्टमांश धूस लिये बिना नहीं रहते जिस परगने में सरकार ५०००) तक़ावी देनी चाहती है, डिप्टी साहिब बहादुर केवल दो हज़ार बाँट कर अपनी खैरख्वाही दिखानी चाहते, लोगों को डाँटडाँट कर भगा उनका सर्वनाश करने में नहीं संकोच करते! तब हम क्या कहै, कुछ समझ नहीं सकते!! रहा भारत के दुःखों का गिनाना, सं तो मानो एक प्रकार व्यर्थ की बकवास है! हर्ष का विषय यदि कुछ है, तो बस यही है कि चिरप्रसुप्त भारतीय आर्य सन्तानों में से अब अनेकों की कुछ-कुछ निद्रा भङ्ग हुई हैं! यद्यपि उनमें से अधिकांश अभी प्रमाद मदिर! से उन्मस लेटे हुए उपेक्षा की जम्हाई ही ले रहे हैं! वे देश की अनुपमेय भयङ्कर दशा दिनकर की प्रखर किरियों को देखने से भी अपनी आँखें बन्द किये उसी समाप्ति सन्ध्या तक उठने का अनुकरण कर रहे हैं कि जिसके पीछे कुछ कर्तव्य शेष न रहे और जिस समय जगने का संकल्प कर दुर्भाग्य की निद्रा में पड़ा उनका बड़ा भारी समूह संज्ञा शून्य हो सो रहा है। जैसा कि पं॰ दयाशंकर नसीम का कथन है कि—

नसीम ग़फ़लत की चल रही है उमड़ रही हैं क़ज़ा की नीदें।
कुछ ऐसे सोये हैं सोनेवाले कि जागना हश्र तक नहीं है॥"