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प्रेमघन सर्वस्व

तौभी धन्य ईश्वर! कि जिसका सर्वथा अभाव था, उसकी अस्तित्व दिखाई दे चली है। सच्चे स्वदेश भक्तों का भी समूह संगठन हो चला है। देश दशा पर न केवल विचार करनेवाले वरञ्च उसके अर्थ आत्मोत्सर्ग करनेवाले भी दिखाई पड़ने लगे हैं! चाहे उनकी संख्या अभी कितनी ही कम क्यों न हो, तथापि वे हमारे आश्वासन के हेतु स्वरूप हुए हैं। क्योंकि इस देखते हैं कि अपने देश बान्धवों की ऐसी भयावनी दशा देख करुणा से कातर हो पंजाब से आर्य समाजी और बङ्गाल से ब्रह्म समाजी उनकी इस दीन दशा में सहायता और सहानभूति दिखलाने तथा उनके धर्म और प्राण बचाने को दौड़े बाए और भाँति-भाँति से उन्हें शारीरिक और आर्थिक सहायता दे रहे हैं। किन्तु शोक कि सनातन धर्मावलम्बियों के कानों पर मच्छर भी न भनके! उन्होंने इस परम धर्मकार्य के अर्थ सब के आगे नहीं तो पीछे से भी पैर उठाना उचित न समझा! क्या वे केवल धर्म के नाम से अधर्म करने और मिथ्या बागजाल फैलाकर सनातन धर्म के नाम से भी लोगों को प्रणा उत्पन्न कराना चाहते हैं? क्या ऐसे आपत काल के समय, इस महत्पुण्य कार्य में कहीं कुछ भाग लेते श्री भारत वर्मा महामण्डल का नाम भी सुना गया? अथवा कहीं की कोई धर्मसभा का कोई भी सभासद इस महत् परोपकार कार्य वा दीनोद्धारार्थ खड़ा हुआ दिखाई पड़ा? कोई वैरागी बाबा, महन्त, गोत्वामी वा सन्यासी अथवा पंडित जी—जो कि आजन्म धर्म्मांश ही का भोग लगाया करते वा दान का माल हजम करके परोपकार ही के गीत गाते रहते-कहीं इस महोपकार कार्य में प्रवृत्त दिखलाई पड़े हैं? हाय! इस दल का कोई एक मनुष्य भी तो कहीं कुछ कार्य करता दिखाता? क्यों ऐसे काम्य में प्रवृत्त हो, इसमें फसने से तो उनकी जमी हुई पाखण्ड की दुकानदारी में घाटा आता है। सामान्य प्रजा के दान की एक कौड़ी भी तो ये दूसरे किसी कैसे ही अच्छे सच्चे धर्म कार्य में जाने देना नहीं चाहते। हाय! अपने यजमानों को इस महत्पुण्य कार्य में एक पैसा भी देते देख उनकी प्रांखों में तो शूल चलता होगा। वह तो यही सोचते हैं कि यह हमारा भाग कंगालों के गालों में जा रहा है। अतः यथाशक्ति वे इसमें विघ्न डालने का उपाय करने के बदले इसमें सहायता, कब करनेवाले हैं? हरामी का माल खाते-खाते उनकी बुद्धि यहां तक भ्रष्ट हो गई कि वे यह भी नहीं सोचते कि जब हमारे यजमान स्वरूप इस आर्य जाति ही का नाश हो जायगा, तो हम कहां से फिर माला कचौरी वा