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नवीन वर्षारम्भ

दही पेड़े पर हाथ फेरेंगे! मान लीजिये कि आज यदि कई लाख मनुष्य कृस्तान न होकर केवल दयानन्दीय मतावलम्बी हो जायँ, तो क्या वे इन्हें फिर भी कानी कौड़ी देंगे। किन्तु क्या कहा जाय इनका तो बस वही सिद्धान्त हो रहा है कि—

"अभी तो आराम से गुजरती है। आक्रबत की खबर खुदा जाने।"

यदि कोई इस मत का मनुष्य इस धर्म कार्य में पड़ा भी होगा तो वह केवल अँगरेज़ी विद्या के प्रभाव अथवा नवशिक्षित निज मित्र वा नेताओं के अनुरोध से न कि पूर्वोक्त धर्मधुरन्धरों की शिक्षा, उपदेश वा आदेश से।

हाय! यह जो परोपकार महाव्रत वरञ्च लाखों आर्त मनुजों के जीव रक्षा का कार्या, जिसमें निज गाँउ से कौड़ी के व्यय का भी भय न था, वरञ्च केवल जन साधारण से ले, केवल कुछ शारारिक श्रम कर अनन्त पुण्य और यश का भागी होना, विरक्तों—जिस अर्थ में कि इस शब्द का प्रयोग आज कल होता है—का कार्य था। उसमें कहीं उनका नाम नहीं सुन पड़ता, वरञ्च ईश्वर की दया से अपना उचित कर्तव्य विचार कर केवल कुछ गृहस्थ अपने समस्त कार्यो की हानि उठाकर इस में बद्धपरिकर हुए निःस्वार्थ भाव से तत्पर लखाते हैं। दण्डकमंडली सन्यासी अथवा जैनीयती आज कहां है? रामानुजीय मध्वादि सम्प्रदाय के धर्म-ध्वजी निज उदर पोषण के व्यापार को छोड़ माथे पर विविध माके के लगाने वाले कोई भी महन्त, महात्मा, साधु, अथवा वैष्णव श्रादि कहलानेवाले क्या आज इस धर्म की रङ्गभूमि में दिखाई पड़ रहे हैं? यदि लखाई पढ़ रहे है, तो आर्य समाजी, ब्रह्म समाजी! अथवा खृस्तान लोग!! फिर कहिये महात्मा वे हैं कि आप? कुम्भ के मेलों में पहुँच पहुँच कर जो सैकड़ों शंख और घड़ियाल बजाते, भाँति भाँति की ध्वजा और पता को फहराते अपने सण्ड-मुसण्टे भाइयों को सदावर्त और अन्नसत्र खोलने का डंका बजाते, क्या उससे कोटि गुण इस पुण्य काल के प्राप्त होने पर आज वे कहीं एक मुडी भी अन्न किसी भूख से भरने वाले दीन दुःखी को देते सुने जाते हैं? भला इसमें तो अधिकांश देश के निकम्मे लोग वा जगत के उगने वाले ही रहते। किन्तु क्या कोई पण्डित जी महाराज भी इस कार्य में भाग लेना तो दूर रहा इस विषय में कही धर्मोपदेश देते भी सुने जाते है? हाय! जो कार्य प्रधान रूप से ब्राह्मणों का था, उसे शूद्र और अन्त्यज करते दिखाते हैं! फिर इससे अधिक

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