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प्रेमघन सर्वस्व

परिताप का विषय और क्या होगा? सच पूछिये तो ऐसे ही ऐसे परोपकारी कार्यों के करने से ब्राह्मणों को इतनी बड़ी प्रतिष्ठा मिली थी और निश्चय ऐसे कार्यों के अनुष्ठान से अब दूसरे लोग उसी प्रतिष्ठा को प्राप्त होंगे। जो आज महात्मा कह कर पूजे जाते हैं पामर पापात्मा और पुरुषाधम अनुगित हो तिरस्कृत होंगे, क्योंकि प्रतिष्ठा कार्य के अनुसार मिलती है। अब तक देश पुरानी परिपाटी पीटता जाता था, उसे इनके सच्चे स्वरूप के ज्ञान का अवसर प्राप्त न था, किन्तु अब उसने अपनी दुर्दशा देखकर निज उपकारी और अपकारी एवम् स्वार्थी दल की दशा देखने का अवसर पा लिया है। वह कब केवल तुमारे बहकाने से यह मान लेगा कि—आर्य समाजी निन्दनीय हैं, उनसे देश और धर्म्म का कुछ उपकार न होगा? बा भूख से मरते देश के कंगालों को दान देने की अपेक्षा तुमसे स्वार्थी, अर्थ लोलुप पण्डित, पुरोहित वा मालमस्त महन्त अथवा दुराचारी पराहे पुजारियों को देना अधिक पुण्यदायक है।

अस्तु, "भारत के दुर्भिक्ष के इतिहास[१] पर ध्यान देने से जाना जाता है कि अठारहीं शताब्दी में जबकि अंगरेज़ी इतिहास लेखकों के कथानुसार यहाँ मानों कोई राजा ही न था, सौ वर्ष के बीच यहाँ चार बार से अधिक दुष्काल नहीं पड़ा, किन्तु उनीसवीं शताब्दी में जब से अँगरेज़ी शासन यहाँ पुष्ट और विस्तृत हो चला दुर्भाग्यवशतः दुष्कालों की संख्या भी क्रमशः बढ़ चली। प्रथम २५ वर्ष में दस लाख मनुष्य और दूसरे भाग में ५ लाख मनुष्य क्षुधा से मरे। तीसरे भाग अर्थात् १८५० से ७५ ई॰ तक सरकारी रिपोर्ट में जाना जाता है कि अंगरेज़ी भारत में ६ बार दुष्काल पड़ा और ५० लाख मनुष्य भूख से छटपटा छटपटा कर मर मिटे। उसके चतुर्थ भाग में जिसे अंगरेजी राज्य की पूर्ण यौवनावस्था कहनी चाहिए इस देश में अठारह बार दुभिक्ष की प्रचण्ड अग्नि जली, जिसमें प्रायः २ करोड़ लाख मनुष्य स्वाहा हो गये! केवल अन्तिम १० वर्षों में १ करोड़ ६० लाख मनुष्य अन्न के बिना तड़प तड़प कर मर गए!" फिर कौन कह सका है कि इस दुष्काल में भूख से मरे हुए की संख्या कहां तक पहुंचेगी? जिस देश की ऐसी भयङ्कर दशा उपस्थित हो, उसकी स्थिति की या आशा हो सकती है? "अवर्षण आगे भी होता ही था। भारत भूमि पूर्ववत्


  1. देश की बात से सार संग्रह।