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नवीन वर्षारम्भ

अद्यापि अन्न उगलती ही चली जाती है किन्तु हां, वह अन्न अब देश में रहने नहीं पाता। रेल और जहाज़ों पर लद लद कर सात समुद्र पार जा पहुंचता है।" जिस कारण भारतीयों को—

सुख सुकाल हूँ इन्हें अकालहि के सम भासत।
कई कोटि जन सहत सदा भोजन की साँसत॥

अवश्य ही भारत भूमि भारतीय प्रजा का पेट भर सकती हैं, न कि समस्त संसार का। परन्तु आजकल तो यूरप आदि महाद्वीपों को इसे अन्न देकर ही कल मिलेगी चाहे भारत की प्रजा मरे या जीये। आज यदि भारत साम्राज्य इसका प्रबन्ध कर सकता तो सहजहीं बेड़ा पार था, परन्तु वह तो विलायती प्रजा की प्रजा है, उसकी इच्छा के विरुद्ध वह दम भी नहीं मार सकता, इधर भारत की प्रजा सर्वथा परतन्त्र है, उसे किसी प्रकार अपनी रक्षा करने का भी अधिकार नहीं। सरकारी लगान इतनी अधिक है कि जब तक किसान अपना अधिकांश अन्न बेच दें, उसे कदापि दे नहीं सकते।

क्योंकि देश में केवल खेती और सेवा के अतिरिक्त और कोई उद्यम नहीं—देश के शिल्प का विदेशी वणिक कबी नाश कर चुके हैं? हमारे देश के लोगों की वार्षिक आय का पड़ता मि॰ डिग्बी के लेखानुसार प्रति मनुष्य पीछे १५) वा १६) का पड़ता है, जब कि विलायती प्रजा को वार्षिक आय का पड़ता लगभग ४२ पौंड अर्थात् ६३०) का पड़ता है। फिर भारत के उद्धार का उपाय बिना कुछ यहाँ की प्रजा को आत्मशान का अधिकार मिले और क्या है? उसी की प्राप्ति की पुकार स्वरूप यहां के चतुरौं ने स्वदेशी वस्तु स्वीकार और विदेशी बहिष्कार निकाला है, किन्तु देश की अधिकांश मूर्ख प्रजा अभी तक उसे समझ नहीं सकी है। केवल कुछ शिक्षित इस व्रत के व्रती हुए हैं जिन्हें भाँति भाँति की विपत्ति झेलनी पड़ती है, परन्तु वे अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ़ हैं।" वास्तव में भारत के उद्धार का अव यही एक उपाय है। इसी से सब को स्वदेशी ही का सत्कार और स्वीकार करना उचित है। जो लोग देश की रक्षा चाहते हैं उन्हें अब यही व्रत धारण करना चाहिए। घर घर फिर से चरखे और करघे चलाएँ। अपने यहाँ कपडे बना और पहिने। यथाशक्ति निज निज शिल्प की उन्नति करें। विदेशी छण्कों से अपने अन्न और धन की रक्षा करें। ईश्वर की