पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/५७

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बेसुरी तान

क्या लिखा, क्या हिन्दू होकर भी वेद मंत्रों के बल को आप ने कुछ न समझा और फिर आप व्याकरण और संस्कृत को हमसे पूछते हैं, सच है! जब आप हिन्दी, उर्दू, नहीं जानते तो व्याकरण और संस्कृत का कौन कहै! विद्यार्थी न ठहरे अब जो आपने संस्कृत व्याकरण पढ़ना प्रारम्भ किया है, यदि परिश्रम कीजियेगा तो बोध संस्कृत का होगा। (पर खूब जानिये कि हिन्दी बेजाने संस्कृत से काम नहीं चलने का) और जो आप लोग अपने बगल में लिपटी हुई उर्दू के लिए चिल्लाते हैं, उसका कारण यही है कि उर्दू और हिन्दी का भेद आप को ज्ञात नहीं इसलिए मैंने आदि ही में (नागरी भाषा) का वर्णन प्रारम्भ किया उसे तो पढ़ लिया होता, इतनी जल्दी का कौन प्रयोजन था, जान तो लेते पर अब कहीं इस लेख में उर्दू देख न चौंक उठियेगा, यह केवल इसलिये लिख दिया कि आप लोगों को जिन्हें उर्दू से शौक है लिखने का ढंग आवै, पर बड़ा सोच तो यह है कि जिसे आप शुद्ध देखते हैं, उसे भी अशुद्ध लिखते हैं, इसका क्या चारा है। यद्यपि आप लोगों के पत्री को मैं कई बेर झाँक चुका पर सब तरफ और ही सूरत नजर आई, आप का पता जब कहीं न लगा, दूसरों के लेख से भरे पुलिन्दे में केवल समालोचना और सूचना मात्र जिसे हमें लाचार हो श्राप लोगों का लिखा लेख स्वीकार करना पड़ता है। इतनी ही जगह से आपके दोप आपके सामने दिखलाते और आगे के लिए इसलाह और सलाह देकर सोचते हैं, कि कृषाकर अब ऐसा न लिखिए।

आप इकराम फरमाते हैं कि "यह पत्रिका मिरजापुर से निकलने लगी है" वाह क्या कोई मुहाविरेदारी है "खैर यह बड़े ही एक अानन्द का मोका है कि बीबी उर्दू के बगल में लिपटी हुई रहते भी तीन शब्द उर्दू, अर्जी फारसी, के आने पर तीनों अशुद्ध होते हैं। अस्तु लोगों में उसका तिरस्कार होने लगा' यह सच ही दिखलाई दे रहा है! "ईश्वरी कृपा से शनैः शनैः औरों के संग को लोग छोड़ते जायगें" पर आप (उर्दू) से कदापि यह न होगा, श्राप तो अवश्य लिपटी ही रह जायँगी, चाहे ऊपर से मखरे तिल्ते और ग़मज़े करिश्मे क्यों न किया कीजिए, "हम तो चाहते हैं कि" अहा, हाहा, क्या मजा है क्या अच्छा ढंग है सदा रहमत! "कादम्बिनी अज्ञान ग्रीष्म सन्तापितों को सुखदायिनी हो" कैसे हो जब आप देखकर भी अशुद्ध लिखे "आ भाषां धन्य!" अलङ्कार चन्द्रिका यह पुस्तक जैसा नाम आकार से सुन्दर" अपने नामही के शब्द के तुल्य शब्द में भी जहाँ लिङ्ग भेद की