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प्रेमघन सर्वस्व

बाद नहीं "एकाद ही" एक आध लिखना चाहिए! बेशक भूल गए "यह पुस्तक आनन्द देने वाला है, नई चाल का, पढ़ाए जाते हैं" हाँ हाँ हाँ फिर वही बात! भारत जननी काव्य छप गया है! अजी नपुँसक का ख्याल छोड़िए, इन्हें अपने तरह समझिए "अन्न वने छटी" ऐसी योग्यता कि ठेठ गिन्ती में गलती "मत्सर वा अभिमान से" च्यखुश "स्मरण देता है" धन्य! धन्य! "बन्धुओं की प्रार्थना करते हैं।" क्यों नहीं! पर सच कहो क्या इतना भी ज्ञान नहीं फिर तो राम बेड़ा पार करें। "दक्षण टिकिटिकी" हुजूर यह कौन सी जुबान है! "हक्क" वे अदवी मुश्राफ नीचे एक नुक़ता लगाहए। "उसमे नाम देने को ठीक पड़ेगा" यह बंगाली मुहावरा क्यों न हो। "तगाजा" गरीब परवर लफ़्ज तक़ाज़ा है "अक्ल" बस अब हम नहीं कुछ कह सकते।

न बीबी चन्द्रिका साहिबा सिर्फ कादम्बिनी ही पर जल भुन कर खाक़ हो गई, बल्कि पिनक में आकर आपने समस्त हिन्दी के पत्र मात्र को तुच्छ ठहरा कर निकम्मा बना दिया, मित्र विलास, भारत मित्र, उचितवत्ता, विहार बंधु, क्षत्रिय पत्रिका, हिन्दी प्रदीप, परन्तु अन्त के दोनों पर तो अत्यन्त कोप प्रकट करती है, और प्रदीप पर तो दाँत पीस पीस रह गई, पर आप को याद रहै कि इनमें से कोई ऐसे नहीं है कि जो आप के निन्दा करने योग्य हो, आप से सब अच्छे हैं।

यद्यपि आप हमसे लड़कर पीछे से गोल मगोल दीन वचन और अपनी हीनता भी कहती है अर्थात "हम लोगों की दशा पूरी बिगड़ी अतएव बंधुओं को सचेत करना ही है।" खूब! "बात बात पर झगड़े होने लगे, हम अपने सामने किसी को विद्वान या चतुर नहीं समझते" सच है। "चाहे जैसे मन। माने अवाच्य और असफल लेख भी पक्षपात का असता से प्रसिद्ध करने में हमें तनिक नहीं लजाते। ठीक है निहायत दुरुस्त है। ऐसा काहे को कभी अपने ठीक ठीक ऐच कोई बताता है। "हम लोगों की बुद्धिमत्ता दिन दिन मारी जाती हैं हाँ यदि ऐसा है तो अब हम तुम्हें अधिक नहीं सुनाना चाहते, पर आप तो नाहक छाप की गलतियाँ और हस्त दोष को पाकर उड़ चली; इससे मुझसे भी न रहा गया। 'जोहर के जहर' वाह क्या शुद्ध लेख है, फिर नकल की यह शकल "नेस्तनाबूद के" यह उर्दू नहीं! बू से भरे कवि वचन सुधा की, जिनकी ग़लतियाँ मैं नहीं लिखता "क्यों कि आपकी लेखनी