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प्रेमघन सर्वस्व

बैठे, फिर भला जब श्रादि ही में कि जब वह कार्य, अन्त की कौन कहे मध्यावस्था को भी नहीं पहुंचा और लोग तृप्त से हो गए, तो फिर आगे का क्या कहना है।

यद्यपि हम इसका ठीक कारण नहीं कह सकते, पर तो भी जहाँ तक अनुमान कर सकते लिखते है।

अर्थात् प्रथम तो जो नाटक हमारी भाषा में अब तक देखे जाते हैं, उन में बहुतेरे तो प्रायः दूसरी भाषा से अनुवादित हैं पर उनमें भी कई बातें कथनीय है कि बहतेरों में कहीं गान और छन्द का नाम भी नहीं है, जैसे शकुन्तला, बेणी संहार, रत्नावली, उत्तररामचरित्र, इत्यादि का अनुवाद पर तो भी ये खेलने योग्य है, बिलकुल छन्दों ही में शकुन्तला का जिसे नेवाज कवि ने अनुवाद किया या दोहा चौपाई में प्रबोध चन्द्रोदय की तरह व्यर्थ तो नहीं, हम नहीं जानते कि जिन कृपानिधानों ने इसे बनाया उन्होंने क्या समझ कर इस व्यर्थ श्रम को स्वीकार किया, और उन महात्माओं को क्या पड़ी थी जिन्होंने इन्हें बनवाया और गुनाह बेलज्जत के भागी हुए; अब ये दोनों प्रकार के अनुवाद का दो बातों से लाचार हो अपने अपराध से बरी और मुक्त होते हैं, अर्थात उनको पद्म रचना की सामध्ये नहीं, और ये गद्य लिखने से कसम खाये हाथों में पिसान लगाये भण्डारी और शहीदों में नाम लिखाने बिना व्याकूल, हम प्रथम अनुवाद कर्ताओं का परिश्रम व्यर्थ कह बहुत सोच नहीं करते पर द्वितीय श्रेणी बालों के अर्थ अवश्य चुप भी नहीं रह सकते। इनके अतिरिक्त थोड़े अनुवाद ऐसे भी हैं, कि जो गद्य पद्यमय है पर उनमें, भी कितने कुछ कुछ दोष से रहित नहीं है, बहुतेरे ऐसे हैं कि जिनमें पद्य के नाते केवल छन्द मात्र है, और गाने का जो नाटक का जीव है वहाँ समावेश नहीं बहत ऐसे कि भाषा अच्छी तो छन्द खराब पद्य उत्तम तो गद्य अधम, कितनों में नाट्य विरुद्ध क्रम, और थोड़े ऐसे भी हैं कि जिन्हें न तो अनुवाद कह सकते हैं न नवीन, उनकी चाल ही दूसरी है, एक आध ऐसे भी हैं कि आदि से अन्त तक पढ़ जाइये पर तो भी यह न मालूम हो कि यह क्या था, जैसे कृतकेय वा कार्तिकेय या कृतकेटक कि जिसका ठीक नाम भी याद नहीं उसका अर्थ कौन जाने।

कारण यह कि कोई न तो कुछ वृत्त देन प्रस्तावना स्पष्ट रीति से लिखें और लेख का ढङ्ग निराला रखते, कितने ऐसे कि दोनों क्या बल्कि अपने नाम को भी मिला तीनों खा जाते, बहुतेरे पात्रों के नाम का भी अनुवाद