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प्रेमघन सर्वस्व

काम के नहीं; लोग कह बैठेंगे किन सब की कविता एक सी और न सबकी बुद्धि एक सी होती है, पर हम इसको कब नहीं मानते, परन्तु सत् कवियों का अनुकरण तो करना चाहिए, गालिप्रदान, और ग्राम्य, बीड़ा, अश्लील, शब्दों के न रखने बिना कौन घाटा था।

इसका मुख्य कारण तो यह है कि अपनी जीभ और अपनी गीत फिर क्या मसल है कि "खुदा की दी मुफ्त दाढ़ी जब चाहा नोच लिया" बस जिसको जो सूझा अंट संट लिख नाम उसका एक नाटक लिख दिया, कवियों के रजिस्टर में नाम लिख गया, चलो छुट्टी हो गई, सच है "लोगन राम खेलौना जाना" वाह! नाटक और कविता कहाँ यह तो एक दिल्लगी ठहरी; हमने भी अपने नगर में सुना है कि लड़के गोली और गुल्ली डण्डे के खेल पर नाटक बनाते हैं, हम इसको स्वीकार करेंगे कि चाहे कल का लड़का नहीं अाज का हो, और इससे भी छुद्र विषय पर कोई नाटक लिखे तो भी कोई दोष नहीं, पर नाटक हो तो।

देखना चाहिए कि योरोप देश के विद्या प्रभाकर महाकवि श्री शेक्सपीयर के कई नाटक बहुत ही छोटे छोटे विषयों पर लिखे गये, और अत्यन्त छोटे और प्रसिद्ध प्रसिद्ध किस्से और कहावतों पर भी उसने अपने नाटक बनाये, पर पीपल के बीज से मानों बड़ा भारी वृक्ष कर सबकी बुद्धि चौकन्नी कर दिया। "मर्चेन्ट आफ़ वेनिस (Merchant of Venice)" नाम नाटक जो उसने लिखा है एक अत्यन्त छुद्र किस्सा से उसकी जड़ है, कि जो इस देश में भी काज़ी के न्याय के नाम से प्रायः प्रसिद्ध है, हमारे यहाँ के कवियों ने भी ऐसा क्रिया, कविवर भवभूति कि जिसे कालिदास ने अपने मुँह से अपने बराबर कवि माना है "अहम् वा भवभूति" उसने मालती माधव केवल मालती (एक फूल) और माधव (वैशाख का महीना) इन्हीं नामों का काम तमाम कर डाला पर केवल वैसवारे के रहैया आहिन[१] कह तो काम नहीं चलने का, निदान अब हम इसको यहीं समाप्त कर श्रागे इसके उन नाटकों की ओर अपने कलम को रूजू करते हैं कि जो अच्छे कहाते हैं। वर्तमान काल के अच्छे लेखकों से लिखे गये, इससे कोई सम्बन्ध नहीं कि रचयिता कोई प्रसिद्ध वा


  1. यह कटाक्ष शायद पं॰ प्रताप नारायण मिश्र के ऊपर किया गया है—इसका कुछ आधार पंडित जी का एक पत्र है—जिसमे उन्होंने लिखा है "हम वैसवारे के रहैया अहनि...हम दूरसेन का चरम आइत है"—सं॰