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दृश्य, रूपक या नाटक

बड़ा मनुष्य अथवा कवि नहीं, या कि नाटक बड़ा भारी वा गूढाशय नहीं, किन्तु हम केवल विषय के अनुसार लेख और बिना पक्षपात के शुद्ध रीत से उसके गुण और दोष को देखेंगे, और उसी में उचित स्थान पर योग्यायोग्य प्रबन्ध की विवेचना करेगे, शेष से हम कुछ मतलब नहीं; देखना चाहिए कि "दुःखिनी बाला" नामक एक अत्यन्त छोटा सा रूपक कि जिसका लिखने वाला एक बालक अर्थात् चिरञ्जीवी श्री राधाकृष्णदास कि उसके देखने से कदाचित यह नहीं अनुमान होता कि यह एक बालक का लिखा है, हम क्यों कर व्यर्थ उसको बुरा कहें।

अब बड़े बड़े नाटकों में प्रथम श्री बाबू हरिश्चन्द्र जी के जैसे '


"सत्य हरिचन्द्र" "मुद्रा राक्षस" "कर्पुर मञ्जरी" कि जिन का अनुवाद अच्छा है—अच्छे है, और उनके रचित नाटकों में भी चन्द्रावली, भारत दुर्दशा, भारत जननी, इत्यादि अवश्य अच्छे नाटक कहे जायगे; लाला श्री निवास दास कृत "रणधीर प्रेम मोहनी" पर बहुतों ने समालोचना की है, हमारे कहने की आवश्यकता नहीं श्री बालकृष्ण भट्ट हिन्दी प्रदीप सम्पादक का चन्द्र सेन, पद्मावती भी अच्छी की संख्या में कहे जा सकते हैं, अनुवाद में पूज्यवर पण्डित गदाधर सी मालवीकृत तथा विक्रमोर्वशी की भी बुरों में गणना हम नहीं कर सकते यद्यपि वे मुख्य ग्रन्थकर्ता के सजाये हुए, भी अभी अमिनब अर्थात् खेलने में दर्शकों को पूर्ण रूप से आनन्द दाई न कहे और समझे जायँ, पर हम तो उसको दूसरी भाषा में सीधे संगधे कह देने को भी बहुत समझते हैं, किन्तु नमक मिर्च और अपनी अधिकाई और विचित्रताई छोड़ थोड़े दोष को भी कलानिधि का कलंक जान बहुत लिहाज नहीं करते।

अब हम इसके आगे इसके कारणों पर दृष्टि देते हैं, तो यद्यपि यह नियम है कि किसी कार्य के प्रारम्भ में कुछ न कुछ कमी उन गुणों की कि जो उसके मध्य वा अन्त अवस्था में प्रात होते हैं रहती ही है, तथापि हमें जैसे अपने देश-बान्धवों से देश-दशा पर उद्योग और उन्नति की इच्छा है, जिस प्रकार से और विषयों में पश्चाताप और निराशा होतो है वैसे ही इसमें भी न केवल नाटक रचयिता और नटों (अर्थात् अभिनयकता यों) ही से किन्तु पाठक, दर्शक, श्रीमान और विद्वान् मात्र से भो, क्योंकि वे “गाहक गुन कौन काम को अगर गुन गाहक हो तो क्यों न गुनदिखाय, पर हा! यहो तो कसर है।

हम इस पचड़े को बहुत न बढ़ा और सब के बखेड़े को छोड़ केवल मन्थ कर्ताओं ही के विषय लिखने योग्य जान कर अब और उन कसरों को लिखते