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दृश्य, रूपक या नाटक

उत्तम नाटक और अभिनय वही है परन्तु तब तक यह कैसे हो सकता है कि जब तक सत्कवि की कविता न हो, और चतुर नट नाटय में प्रवीण न हो, निश्चय जानिये कि दोनों एक एक मिल तब इगारह की संख्या प्राप्त करते हैं, केवल बनाने वाला क्या करेगा जब खेलने वाला ठीक नहीं "गुरू क्या करें जब चेला न पढ़े" हम कह सकते हैं कि यदि कोई उत्तम मण्डली हो तो नाटक तक हर्ज़ नहीं क्योंकि मण्डली जो बड़ी होती है कवि से खाली नहीं रहती, अच्छे अच्छे नाटकों को भी वे अपने तौर पर संवारती और बनाती भी हैं, बस यदि वे नाटक जिन्हें हम अच्छे श्रेणी में गिना आये हैं इस रीत से दुरुस्त करके खेले जाँय तो क्या बुराई हो, लेकिन "नट कुपठित" होने से तो फिर अन्त हो जाती है। इससे यथार्थ अभिनय तहाँ तक नहीं हो सकता जब तक सुन्दर, मधुर स्वर; नाट्य कला कुराल, पढ़े पढ़ाए पात्र, नाट्यालय और उसके सब साज अर्थात् स्टेज, पर्दे, वस्त्र, भूषण, रूप और शृङ्गार सामग्री और और नाना प्रकार की यथाऔसर की वस्तु न हों, तथा कवि और नृत्य, गान, बाय, नाट्य के गुण शिक्षक प्रायःपात्र सब नौकर हों फिर किसी उत्तम प्रबन्धकर्ता के प्रबन्ध से युक्त, दर्शक रसिकों की उत्कराठा और द्रब्य से पूर्ण हों, तो अवश्य यथार्थ आनन्द अनुभव हो; पर यह द्रब्य के आधीन द्रव्य अरसिकों के आधीन, वे मूर्खता और मूर्ख मन्त्रियों के आधीन, फिर कदिर कैसे बनै? लेकिन अगर सिलसिला वला जाय तो कुछ न कुछ फल उसका अवश्य हो, और कहाँ तक कुछ उन्नति न हो परन्तु यही तो घाटा है।

हम पहले लिख पाये हैं कि हमारे देश के मनुष्य प्रायः प्रारम्भ शूर हा करते हैं थोड़े दिन हुए इसकी एक धूमसी मच गई थी, नित्य नये नाटक के चरचे और नये रचे नाटक भी दो चार देखने में आये, अभिनय की भी खबरे आने लगीं, लोगों के मन में मज़े की फुरफुरी भी उठी, पर कहीं कुछ नहीं। यद्यपि हम इसके बहुत से कारण कह चुके पर तो भी एक बड़ा भारी सबब जो बचा है वह सबसे अधिक विचारणीय है, अर्थात् जब यहाँ के अधशिक्षितों को कुछ अंड बंड नाटकों के देखने और कुछ यो त्यों के अभिनय अर्थात नाटकों के खेल देखने में आये, तब कुछ उमङ्ग का रंग मन पर चढ़ा, खेलने वाले जो बिचारे निरे नये उत्साही और मन के बहलाव या महज़ शौक़ से इस काम को उठाये थे, कुछ २ हर्षित और उत्साहित हुए कि उसी समय पारसी नाट्य मंडलियों का यहाँ आ जाना मानों इसके काल का आ जाना हुआ देखने वालों को तो एक दम से देखने का मजा, इतकी गौरव, इज्जत