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प्रेमघन सर्वस्व

और मान अर्थात् आदर हुआ, पर लेखक और अभिनयकर्ताओं के उत्साह को तो यह कुल्हाड़ी हो गया, इन के आने के इधर न कोई नाटक बना देखने में आया न कहीं अपितय होने सुना, यदि जग विचित्रता से बढ़कर विचित्र ताई दिखा सकने की आशा इन्हें होती, चट यह अब तक उनसे कहीं अच्छी उन्नति की दशा पर हो गये होते और फिर उनको इधर थाने का उत्साहन होता बल्कि हमारी कम्पनियों को उधर बढ़ने और अन्य देशों में भ्रमण करने की उत्कंठा होती।

निदान अब हम यहीं से लेखनी को रोकते हुए अपने देश के विद्यानुरागी और नाट्य रसिकों से अत्यन्त बिनय के संग निवेदन करते हैं कि हतोत्साहन होकर फिर इसके उन्नति की अभिलाषा से बद्धपरिकार हो सके उन्ोग में प्रवृत्त हो, और धनमान लोग उन्हें उत्साह देने में ज़रा भी जी न चुरायें, और ईश्वर इस विद्या में इस देश को फिर उन्नत कर इस देश की उन्ननि करें।

कार्तिक १९३८ वै॰ आ॰ का॰