पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/६९

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त्रिवेणी तरंग

कचित्यमालेपिभिरिन्द्रनीलैर्मुक्तामयी यष्टिखिानुबिद्धा।
अन्यत्र मालां सितपङ्कजाना मिद्यावरैरूत्खचितान्तरेव॥
ऋचित्खगानां प्रियमानसानां कादम्ब संसर्गवशीव पंक्तिः।
अन्यत्र काला गुरुदत्तपत्रा पक्तिर्भवश्चदन कल्पितेव॥
कचित् प्रभा चान्द्रमसी तमोभिश्छायाविलीनैः शवलीकृतेन।
अन्यत्र शुभ्रा शरदभ्रलेखा रंधेष्टिवालयनभः प्रदेशा॥
क्वचिन्च कृष्णोरगभूषणेव भस्माङ्गरामा तनुरीश्वरस्य।
पश्यानबद्याङ्गि विभाति गङ्गा भिन्नप्रवाहा यमुना तरंगैः।
समुद्र पत्न्योर्जलसंनिपाते पूतात्मनामत्र किलाभिषेकात्॥
तत्वावबोदार्थ विनापि भूयस्तनु त्यत्रां नास्तिशरीर बन्ध!!

(रघुवंश १३ सर्ग ६४-६८)

१२ वर्ष बीत गये। अभी कलही सब हुआ सा जान पड़ता है। इन वर्षों के प्रत्येक पत्रों के कोष्ठस्थ तिथियों को जिन्हें झाँकने का कोई प्रयोजन सिवा सूर्योदय सूर्यास्त बा मास की कौन तिथि है जानने के और कुछ था, एक बार छोटी दर्पनियों सी यदि नेत्र के समक्ष उपस्थित की जाँय, तो साहसेन्द्र (मैकवेथ) के डाइनों के दर्पन सी कुछ कम भयावनी मनोद्वेग उपजाने वाली न ठहरेंगी! क्यों? इनमें से कोई भी ऐसी नहीं है जिनके देखने से यह सन्तोष हो कि अमुक में उचित कर्त्तव्य परोपकार वा अपने सुधार में समय व्यय होने का प्रीतबिम्ब देख पड़ रहा है, हाँ कुछ दिन अवश्य जब पूज्य कवि के प्रार्थना के साथ हम लोगों को भी यही जी से इच्छा थी:—

पावन अवनि भारत सुतीरथराजबाट सुभ फल फरै।
गङ्गा कलिंदी सरसुती संगम त्रिवेनी तम तरै॥
जातीय सम्मिलनी महा यह पर्व दुख देसहिं दरै।
आरज यवन अंगरेज़ को संगम नवल मंगल करै॥

(भारत सौभाग्य—नान्दी)

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