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त्रिवेणी तरंग

दृढ संस्थाई होगी। क्या सहस्त्रों मिथ्या जंजालों से कभी जी हटेगा! क्या जब फिर गृहकार्य में प्रवृक्त होंगे, इस बात की, इच्छा कभी होगी कि यदि थोड़े ही दिन रहना है, तो क्यों न निकण्टक हो रहें! दूसरे के शान्ति मय जीवन को क्यों कण्टक मय करें? हा कैसी भक्ति है! कैसा प्रेम है! देखो साधुओं के चले जाने पर लोग उस मार्ग को धूर उठा शरीर में मल रहे हैं। कोई उसमें लोट तक गये हैं!

कहीं त्रिवेणी में दम्पति गाँठ जोरे स्नान करते अपने मन की कामनाओं को वेणीमाधव से सहज भाव युक्ति बुड़कियों से माँगते, दौरियों फूल, घड़ी दूध, सुगन्धित द्रव्य तारिणी गङ्गा को साथ चढ़ाते, संग ही कपूर्र की आरती करते, अर्ध देते हैं। दोनों की मधुर मुस्कुराकर को देख कौन यह निश्चय कर सकता होगा कि इनके जी में भी कुछ अन्तर है! पर हा! संसार अद्भुत है! कदाचित् इन्हीं थोड़े वर्षों में वे किसी दूसरी मोहिनी के वश हो अपनी परम विनीता अनुयायिनी प्राण-प्रिया को तिरस्कार कर, बुढ़ाई में दूसरे विवाह के दुखद सुख को बलहीन हो भी इतर भावों से सुखी करने की चेष्टा कर भोगते होंगे।

कहीं स्वामी के दुःख से दुःखी हो, अपनी तीक्षणता पर श्री लक्ष्मण जी का चेतनावस्था प्राप्त करना निर्भर जान और भी बेगवान बन, मार्ग के कारणोपस्थित बिलम्बों से और भी व्यत्रता से शीघ्रता धर, हिमालय पहुँच मृतसञ्जीवनी को न पहिचान धवलागिरि को शिर पर धारण कर, रात्रि भर के परिश्रम की सफलता से प्रसन्न हो, थके महाबीर मानो अकबर-दुर्ग रूपी लङ्का गढ़ की त्रिवेणी परिखा में, प्रातःकाल फिर भी अपने घोर गर्जन से राक्षसों को डरपाने को गहिरी नींद में सो रहे हैं, और अपने बोझ से कई हाथ पृथ्वी में फंस गये से जान पड़ते हैं। इनके दर्शन करने को नीचे उतरते, भक्त लोग खाद्य सामग्रियों को चढ़ाते मानों प्रातःकाल उनके जलपान के अर्थ इसे प्रस्तुत करते।

कहीं अक्षयवट के लुटेरू प्रकाश द्वार (रोशनदान) को दोगों से ढाँके भक्तों से एक एक पैसा बत्ती जलाने के अर्थ ले रहे हैं, नहीं जानते इन्हें इस द्वार के ढाँकने का अधिकार कहाँ से मिल गया है। कही सिंहासन पर बैठे पण्डित जी भक्त जनों के अर्थ पुराणों से अमृत वर्षा कर रहे हैं, श्रोतागण मेले के कौतुक को भूल इसमें दत्तचित्र हो चित्र से खिंच गये हैं। कहीं