पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/७३

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समय

काव्यशास्त्र विनोदेन कालो गच्छति धीमताम्।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा॥

यह विख्यात है कि त्रिभुवन में विजय की पताका फहराने वाला, अपने कुटिल कुत्सित परिवार से ब्राह्मणों को दुख देने वाला बली प्रतापशाली, मायावी रावण जब भगवान् रामचन्द्र के रुधिरपाई बाणों से छिन्न भिन्न हो पृथ्वी पर अपना पर्वत सरीखा अपार शरीर लिए गिरा, और आकाश त्रिभुवन के हर्षनाद से पूरित हो गया, और अन्तिम झटके उसे श्वास के आने लगे, तब अपने जेता के पूछने पर उसने कहा,—"आवश्यक कृत्यों के सम्पादन में विलम्ब करना उचित नहीं। मैंने दो तीन कृत्य करना आवश्यक समझा था, और उसे टालता चला आता था, आज उन्हीं के न करने से मुझे शोक है, और उन्हीं भूलों का फल मुझे तत्काल ही मिलेगा! रावण यह नहीं जानता था कि त्रिभुवन प्राणदाता के सामने वह क्या कह रहा है। जब उसे स्वयं उन्होंने अपने हाथों से निधन किया तो अब इसके आगे उसे कैश मिल ही क्या सकता था निश्चय जब अवसर चला जाता है, हाथ मलना ही भर रह जाता है। आलस्य से भरे भद्दे स्वभाव में बेकार बैठे रहने की इच्छा प्रबल होती है और जी यही कहता है आज नहीं कल, कल नहीं परसों यह करेंगे, जिसको तत्काल ही कर डालना उचित है, यह बात बुरी है। जब तक किसी कृत्य को अपना कसंव्य समझ मनुष्य हद उद्देश्य से उसे न करेगा, कर्शव्य शून्य स्वभाव अलहदी बन जायगा। बालस्य लोहे की मुर्चा सी लिपट जौहर खा जायगी फिर किसी कार्य के करने का उत्साह जाता रहेगा। क्या प्रारचर्य कि "छाती पर की गूलर" न में डालने को दूसरे से कहना हो।

संसार में मनुष्य को जो कुछ सीखना करना और निपटाना है उसके अर्थ समय बहुत ही कम मिला है; उसके जीवन के दिन गिने भये हैं, इससे इसको व्यर्थ न जाने देना चाहिए

यदि अपने समय के प्रत्येक पल की चिन्ता मनुष्य रक्खे तो थोड़ी आयु को भी महा बढ़ा सकता है, जिसे वह एक मास में कर सकेगा

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