पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 2.pdf/७७

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हिन्द, हिन्दू और हिन्दी

ये तीनों हकारादि शब्द न केवल अकेले हमी, को वरञ्च हिन्द-निवासी समस्त हिन्दुओं को श्रवणानन्ददाई है। इन तीनों के आदि का 'ह' अक्षर मिलकर ह-इ-ह- प्रसन्नता-सूचक हास्य का रूप वा अंग होता है। योंही कभी २ यही शब्द कष्ट वा उपहास का भी बाची हो जाता है। यही तीन "हि" मिल कर हिं हिं हिं—जैसे आनन्द सहज हास्य का स्वाभाविक कल स्वर है उसी भाँति दुःख और दैन्य प्रकाशक भी हैं। वास्तव में यह साधारण रीति से समस्त सामान्य और विशेषजनों को एक ही प्रकार से आनन्दोन्मत्त वा दीन बनाने में समान रीति से समर्थ है कि जिसे सुन औरों के मुख से भी उसी भाव और प्रभाव से वे ही शब्द उच्चरित होते हैं। परन्तु हा शोक कि न जाने क्यों ईश्वर की कृपा से अब अधिकांश पिछले ही अर्थ से इसका अर्थ कठिन कष्ट का कारण है।

यद्यपि इनमें एक ही हकारादि शब्द के विषय में कुछ कहने को बहुत समय और स्थान चाहिये, और इन तीनों ही के विषय में पृथक २ पृथक् हमें बहुत कुछ कहना है, और एक ही के लिये अनेक बार और अनेक प्रकार से अनेक प्रबन्ध लिखने की इच्छा है, अतः एक के स्थान पर तीनों का एक बारही प्रवेश कर देना कुछ अनुचित क्यों न हो; परन्तु इनमें परस्पर एक दूसरे के संग अति निकटस्थ सम्बन्ध रहने और तीनों के आदि, अन्त और मध्य तीनों काल में अन्योन्याश्रय के वर्त्तमान रहने से इन तीनों के विषय में एक साथ विचार करना भी कुछ विशेष अयोग्य न होगा। इनमें एक को दूसरे से क्या सम्बन्ध है? प्रथम इसी के समझने समझाने की बड़ी आवश्यकता है। मानों एक इकार की ३ हिं शाखा है, वा क्रमशः। एक से एक की उत्पत्ति से मानो पिता पुत्र और पौत्र का मां सम्बन्ध है अतः सभी एक से एक आवश्यक और एक दूसरे के प्रबलतर सहायक हैं। योही बिना एक के दूसरे की शोभा वा सम्मान का वर्तमान रहना फीका और कुछ असम्भव भी है। क्योंकि इसमें कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं है कि किसी देश की उन्नति तहाँ तक हो ही नहीं सकती कि जहाँ तक

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